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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
होता है। वह स्वयं भी तनावयुक्त रहता है व दूसरों को भी तनावग्रस्त बनाता है। उसकी अपनी विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह कभी भी तनावमुक्त नहीं हो पाता है। तनाव के इस स्तर पर उसके सोचने-समझने की क्षमता प्रायः समाप्त हो जाती है। वह क्रोध में प्रतिक्रियाएं भी करता रहता है और उसकी चित्तवृत्ति क्रोध से आक्रान्त बनी रहती है। 2. अप्रत्याख्यानी क्रोध -
जब क्रोध चैतसिक-स्तर पर तीव्रतर होता है, तो वह अप्रत्याख्यानी-क्रोध है। इसमें व्यक्ति क्रोध की बाह्य-प्रतिक्रियाएं तो कम करता है, किन्तु चित्त क्रोध से पूरी तरह आक्रान्त रहता है। दूसरों के प्रति ईर्ष्या, जलन, और विद्वेष की भावना इसके प्रमुख लक्षण हैं। क्रोध की इस अवस्था में व्यक्ति केवल लोक-लाज से बाह्य प्रतिक्रियाओं को रोकता है, किन्तु अन्तस्थ में तो तनावग्रस्त रहता ही है। यह स्थिति चैतसिक-स्वास्थ्य के लिए अधिक खतरनाक होती है, क्योंकि इसमें 'दमन' की ही मुख्यता होती है। अप्रत्याख्यानी-क्रोध का मूल कारण मोह या राग है। तनाव-उत्पत्ति में भी मुख्य हेतु राग ही होता है। जब किसी अपने या प्रिय का कोई अपमान करता है, तो उसके चित्त में जो विक्षोभ उत्पन्न होता है, वह अप्रत्याख्यानी-क्रोध होता है।
अप्रत्याख्यानी क्रोध में पर के प्रति रागात्मकता अधिक होती है। यह राग-भाव व्यक्ति के मन में तनाव उत्पन्न करने का मुख्य तत्त्व होता है। जहां राग होगा, वहां क्रोध होना स्वाभाविक है। अप्रत्याख्यानी-क्रोध आदि में तनाव की सत्ता मानसिक स्तर पर ही होती है, बाह्य-प्रतिक्रियाएं कम होती हैं। व्यक्ति को क्रोध तो आता है, किन्तु वह उसकी बाह्य-प्रतिक्रिया नहीं करता है, मात्र मानसिक-स्तर पर ही दूसरे के प्रति क्रोध से आक्रान्त बना रहता है। वह मन-ही-मन क्रोधित होता है, अर्थात् तनाव में रहता है और यह तनाव दीर्घकाल तक बना रहता है। जिस प्रकार गीली मिट्टी में सूखने के बाद दरारें पड़ जाती हैं, अगले वर्ष की वर्षा आने तक वे दरारें नहीं भरती, उसी प्रकार एक बार किसी पर क्रोध आ जाए, तो दीर्घकाल तक मन में क्रोधरूपी तनाव की अग्नि जलती रहती है, जो उसे क्षण भर के लिए भी तनावमुक्ति या शांति का अनुभव नहीं करने देती है।267
267 प्रथम कर्मग्रन्थ/ या / कषाय, पृ. 44
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