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________________ 132 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति करके दीक्षित हो गए, किन्तु अन्तर में छोटे भाइयों को नमन नहीं करने पर संज्वलन मान बना रहा, अतः कैवल्य को उपलब्ध नहीं कर सके। संज्वलन कषाय - __ यह वह स्थिति है, जहां व्यक्ति को अवचेतन स्तर पर तनाव की मन्दतम परिणति होती है। इस स्थिति में भी अव्यक्त तनाव तो होता है, किन्तु उससे व्यक्ति की चेतना पर दबाव नहीं बनता, क्योंकि वह अवचेतना स्तर पर होता है। व्यक्ति बाह्य व आन्तरिक-दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रियाओं को रोक लेता है। संज्वलन-कषाय का उदय रहने पर भी व्यक्ति में काषायिक-भावों की परिणति मन्दतम होती है। व्यक्ति हिंसादि पापों से विरक्त होकर, इष्टानिष्ट भावों से परे होकर तथा समभावपूर्वक साधना-मार्ग पर चलता है। इस स्तर पर उसका मानसिक-संतुलन बना रहता है। संज्वलन-कषाय वाला व्यक्ति विवेक, क्षमा, सहजता, शांति, सहनशीलता आदि गुणों से युक्त होता है। संज्वलन-कषाय में बाह्य रूप से तो कषाय से मुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु आन्तरिक रूप से उसकी छद्म सत्ता बनी रहती है, जैसेप्रसन्नचंद्र राजा दीक्षा के बाद मन-ही-मन भावों से युद्ध करते रहे। उस समय उनके चैतसिक-स्तर पर कषाय-भावों का उदय हआ, किन्तु जैसे ही युद्ध करने में मुकुट को शस्त्र बनाने के लिए उन्होंने सिर पर हाथ रखा, तो अपने मुनि होने का एहसास हुआ और अपनी सोच पर पश्चाताप करते हुए संज्वलन-कषाय को भी समाप्त कर वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। 'जिस कषाय का उदय होने पर जीव अति अल्प समय के लिए अवचेतन स्तर पर उससे अभिभूत होता है, उसे संज्वलन-कषाय कहते हैं।' 259 जितने अल्प समय के लिए संज्वलन-कषाय का उदय होता है, उतने ही अल्प समय के लिए व्यक्ति तनावग्रस्त होता है और क्षण भर में उस तनाव से मुक्त भी हो जाता है। भगवान् महावीर ने अपना निर्वाण-समय निकट जानकर गौतम गणधर को उनके प्रति रहे हुए राग-भाव को दूर करने के लिए अन्यत्र भेज दिया। जब प्रभु निर्वाण को प्राप्त हो गए, तो गौतम गणधर को कुछ समय के लिए राग के कारण शोक हुआ, किन्तु उसी शोक की अवस्था में विचार करते-करते जब उन्होंने प्रभु की वीतरागता को समझा, तो स्वयं उन्होंने भी प्रभु के प्रति उस प्रशस्त रागभाव का त्याग कर दिया HHETHI 259 कर्म विज्ञान, भाग-4, पृ. 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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