SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 130 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति अप्रत्याख्यानी-कषाय - अप्रत्याख्यानी का अर्थ होता है- जिसे व्यक्ति पूरी तरह से छोड़ नहीं पाता है, अर्थात् कहीं-न-कहीं से निमित्त मिलने पर वह भले ही प्रतिक्रिया नहीं करे, किन्तु अपने मनोभावों को रोक नहीं पाता है। इसे हम तनाव की वह स्थिति कह सकते हैं, जहां व्यक्ति बाह्य स्तर पर प्रतिक्रियाएं व्यक्त न कर संतुलन बनाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु मानसिक-स्तर पर संतुलन या समभाव नहीं बना पाता है, अर्थात व्यक्ति पागल तो नहीं होता, पर तनावयुक्त तो रहता है। . इसे हम तनावों की अल्पता का द्वितीय स्तर भी कह सकते हैं। कषायों के स्तर की दृष्टि से अप्रत्याख्यानी-कषाय अनन्तानुबन्धी-कषाय से कुछ ऊपर उठी हुई स्थिति है। इसमें व्यक्ति बाह्य-प्रतिक्रियाएं रोकता भी है। अप्रत्याख्यानी-कषाय में व्यक्ति बाह्य-प्रतिक्रियाएं तो नहीं करता है, किन्तु अन्तर्मन में राग-द्वेष के भावों की अग्नि जलती रहती है। कुछ तनाव ऐसे भी होते हैं, जो व्यक्ति की आदत बन जाते हैं और जो आदत बन जाते हैं, उनको सहज निराकृत नहीं किया जा सकता। अप्रत्याख्यानी-कषाय में व्यक्ति प्रतिक्रिया सो रोक लेता है, पर मन में शांति का अनुभव नहीं कर सकता। वह मनोभावों के स्तर पर चिंतित, अशांत व तनावग्रस्त रहता है। उसकी बाह्य प्रतिक्रियाएं तो रुकती हैं, किन्तु चैतसिक प्रतिक्रियाएं चलती रहती हैं। इस स्तर पर व्यक्ति का मानसिक तनाव बढ़ता तो नहीं है, परन्तु समाप्त भी नहीं हो पाता है। व्यक्ति समझता तो है कि वह तनावग्रस्त है और उसका कारण क्या है, किन्तु उससे मुक्त भी नहीं हो पाता। वह प्रयत्न करता है कि उसका मानसिक-संतुलन बना रहे, किन्तु निमित्त मिलने पर वह फिर तनाव में आ जाता है। उसके मन में संकल्प-विकल्प चलते रहते हैं। बाह्यप्रतिक्रियाएँ तो रुक जाती हैं, किन्तु चैतसिक-स्तर पर वासना और विवेक का आन्तरिक-युद्ध तो चलता रहता है और चित्त अशांत बना रहता है। ___अप्रत्याख्यानी-कषाय में भी क्रोध, मान, माया व लोभ की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु इनकी तीव्रता की स्थिति अनन्तानुबंधी-कषाय की अपेक्षा से कम ही होती है। ___अप्रत्याख्यानी-कषाय में दूसरे के अहित की भावना तो कम होती है, किन्तु अपनों के प्रति राग-भाव तीव्र होता है। व्यक्ति का अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy