________________
126
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
2. शोक - इष्ट वियोग और अनिष्टयोग से सामान्य व्यक्ति में जो मनोभाव जाग्रत होते हैं, वे शोक कहे जाते हैं। जिस वस्तु या व्यक्ति की हमें चाह हो और वह नहीं मिले, तो हम दुःखी हो जाते हैं और जिस व्यक्ति, वस्तु की चाह नहीं है और मजबूरी में हमें उसे ग्रहण करना पड़े तो भी हमें दुःख का अनुभव होता है और यही शोक हमें तनाव में ले जाता है। यह भी क्रोध का कारण है। 3. रति - इन्द्रिय-विषयों में चित्त की अभिरतता ही रति है। चर्तमान युग में अधिकतर लोग इन्द्रियों के वश में होते हैं, जो इन्द्रियों की रुचि है, वही मिलने की चाह करते हैं। इन्द्रियों के विषयों की जब पूर्ति नहीं होती, तो हम तनाव में घिर जाते हैं और इन्द्रियों की जरूरत को पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं, फिर चाहे उससे हानि ही क्यों न उठान पड़े। रति के कारण ही आसक्ति व लोभ की भावनाएँ प्रबल होती हैं। 4. अरति - यह नोकषाय रति का विपरीत है। इन्द्रिय-विषयों में अरुचि ही अरति है। अरुचि का भाव ही विकसित होकर घृणा और द्वेष बनता है। 5. घृणा या जुगुप्सा - अरुचि का ही विकसित रूप घृणा है। जब । कोई वस्तु या व्यक्ति अरुचिकर लगते हैं, तो वहां अरति (अप्रियता) होती है, किन्तु जब किसी वस्तु से नफरत- . हो जाती है, तो उसके प्रति घृणा या जुगुप्सा होती है। जुगुप्सा का जन्म हमारे मन-मस्तिष्क में होता है और वह हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ देती है। मानसिकसंतुलन का बिगड़ना ही तनाव का पैदा होना है। यह भी क्रोध-कषाय का कारण है। 6. भय - किसी वास्तविक या काल्पनिक तथ्य से आत्मरक्षा के निमित्त बच निकलने की प्रवृत्ति ही भय है। क्रोध के आवेग में आक्रमण का प्रयत्न होता है, किन्तु भय के आवेग में आत्मरक्षा का प्रयत्न होता है। भय भी एक प्रकार का तनाव है। जब तक मन में काल्पनिक भय या डर बना हुआ रहता है, तब तक व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर पाता और साथ ही अपना आत्मविश्वास खो देता है। एक हारा हुआ व्यक्ति तनाव में रहकर अपने जीवन को व्यर्थ ही गंवा देता
जैनागमों में भय सात प्रकार के कहे गए हैं। जैसे -
251 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा-2985
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org