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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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1. इहलोक-भय - इसका अर्थ इस लोक या संसार से नहीं है। इसका अर्थ जाति से है, अर्थात् मनुष्यों के लिए मनुष्यों से उत्पन्न होने वाला भय। 2. परलोक-भय - यहां परलोक से अर्थ स्वर्ग या नरक न होकर अन्य जाति या विजातियों से है, जैसे- मनुष्य को, पशुओं से भय। 3. आदान-भय - जब कोई दूसरा हमें भावनात्मक दुःख देता है, तब हम सबसे ज्यादा तनाव में रहने लगते हैं। दूसरों से मिलने वाले दुःख का भय ही आदान-भय है। 4. अकस्मात्-भय - अकस्मात् का अर्थ होता है- अचानक, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की हो, और अचानक ऐसा कुछ हो जाए, उसे अकस्मात-भय कहते हैं। 5. आजीविका भय - जीवन जीने में जो जरूरतें हैं, उनके खो देने या समाप्त होने का भय आजीविका भय है। 6. मरणभय - मृत्यु का भय मरण-भय कहलाता है। 7. अपयश-भय - हमारी मान-प्रतिष्ठा अथवा कीर्ति को ठेस पहुंचने का भय या अपमानित होने का भय अपयश-भय है।
भय भी व्यक्ति में तनाव-उत्पत्ति के मुख्य कारणों में से एक है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी कहा है- 'भीतो अन्नं पि हु भेसेज्जा', अर्थात् स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। 252 "भीतो अबितिज्जओ मर्गुस्सो। भीतो भूतेहिं घिप्पई, भीतो तवसंजमं पि हु मुएज्जा। भीतो य भरं न नित्थरेज्जा। 253 अर्थात्, भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नहीं हो सकता। भयाकुल व्यक्ति ही भूतों का शिकार होता है। भयभीत व्यक्ति तप और संयम की साधना छोड़ बैठता है। भयभीत व्यक्ति किसी भी गुरुतर दायित्व को नहीं निभा सकता है। 7: स्त्रीवेद - स्त्री की पुरुष के साथ रमण करने की जो इच्छा होती है, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। 8. पुरुषवेद - पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की जो इच्छा होती है, उसे पुरुषवेद कहते हैं। 9. नपुंसकवेद - स्त्री और पुरुष-दोनों के साथ रमण करने की इच्छा को नपुंसकवेद कहते हैं।
252 प्रश्नव्याकरणसूत्र - 2/2 .. 253 वही ... .
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