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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
या व्यक्ति की प्राप्ति की चाह या ममत्व-भाव उत्पन्न होते हैं। वह प्रिय को पकड़कर रखना चाहता है और जब तक व्यक्ति 'स्व' को विस्मृत कर 'पर' को पकड़ना चाहता है तब तक वह तनावरहित नहीं हो सकता, क्योंकि उसे सदैव प्रिय के वियोग की चिंता या भय रहता. है और तब तक उसे खोने पर दुःख होता है और इसीलिए जहाँ चाह है, वहाँ तनाव है। अगर नाविक कहे कि किनारा नहीं छोडूंगा, तो वह कभी भी नदी पार नहीं कर सकता, उसी तरह तनावरहित होने के लिए तो ममत्ववृत्ति छोड़नी ही पड़ेगी, क्योंकि ममता में चाह है। जहाँ चाह है, वहाँ चिन्ता है और जहाँ चिन्ता है, वहाँ तनाव है। अतः राग-द्वेष के सर्वथा क्षय होने से ही जीव एकान्तरूप या तनावमुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। 'मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो', जीव राग से विरक्त होकर कर्मों (तनाव) से मुक्त होता है।30
जिसका राग जितना ज्यादा होगा, वह उतना ही दुःखी और तनावग्रस्त रहेगा। ऐसे व्यक्ति के जो भी कार्य होते हैं, वे पाप-रूप ही होते हैं। 'पर' के प्रति ममत्ववृत्ति या अपनेपन क्रा भाव ही मिथ्यादृष्टि है, नासमझी है और यह मिथ्यादृष्टि या गलत समझ ही तनाव पैदा करती. है। रागयुक्त व्यक्ति अपने दुःख (तनाव) से मुक्त होने के लिए क्या-क्या नहीं करता, फिर भी तनावमुक्त नहीं हो पाता, क्योंकि उसकी राग-द्वेष की वृत्ति समाप्त नहीं होती है। यद्यपि यह कहा जाता है कि कामना पूरी होने पर व्यक्ति कुछ समय के लिए स्वयं को तनावमुक्त अनुभव कर लेता है, किन्तु सदैव के लिए तनावमुक्त नहीं होता, क्योंकि उसकी कामनाएँ (इच्छाएँ) सदैव ही अपूर्ण रहती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -"इच्छा हु आगाससमा अणंतिया', इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, इसलिए व्यक्ति इच्छाओं को कम करे व जो प्रिय मिला है, उस पर न राग करे, न ही अप्रिय पर द्वेष करे, क्योंकि अत्यन्त तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुंचाता, जितनी हानि अनिगृहीत राग-द्वेष पहुंचाते हैं। कषाय चतुष्टय और तनाव
जैनदर्शन में मनोवृत्तियों के विषय में दो प्रमुख सिद्धांत हैं - 1. कषाय- सिद्धांत, और 2. लेश्या-सिद्धान्त।
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समयसार - 150 उत्तराध्ययनसूत्र - 9/36
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