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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
निषेधरूप होता है। 222 राग और द्वेष- ये दो कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है |23 देवताओं सहित समग्र संसार में जो भी दुःख (तनाव) हैं, वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं। 224 कामासक्ति को हम राग कह सकते हैं। मन एवं इन्द्रियों के विषय, रागी आत्मा के लिए ही दुःख के हेतु होते हैं। 225
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कामभोग - शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और न विकृति के, किन्तु जो उनमें द्वेष या राग करता है, वह उनमें मोह से राग-द्वेषरूप विकार को उत्पन्न करता है। समयसार में भी आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं- "रत्तो बंधदि कम्मं, अर्थात् जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है। 227 आगे लिखते हैं- "ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि, कर्मबंध वस्तु में नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय - संकल्प से होता है। 228 राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्मबंध होते हैं । 229 दूसरे शब्दों में कहें, तो तनाव-स्तर इसी पर आधारित होता है।
इन आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि तनाव का मुख्य कारण राग-द्वेष ही हैं। वस्तुतः जैनधर्म के अनुसार जो कर्मबंध के या दुःख के कारण हैं, मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से वे ही तनाव के हेतु हैं ।
राग व द्वेष- दोनों ही जीवनरूपी सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ राग है, वहाँ द्वेष है और ये दोनों ही जीवन की सुख-शांति को भंग करते रहते हैं। प्रत्येक जीव में राग-द्वेष पाये जाते हैं। जो वस्तु हमें प्रिय लगती है, उस पर राग और अप्रिय पर द्वेष के कारण व्यक्ति स्वयं को तनावग्रस्त बना लेता है। आज व्यक्ति ही क्या, अपितु पूरा विश्व ही तनावों से ग्रस्त है। इसका मुख्य कारण राग-द्वेष ही हैं। राग - दृष्टि व्यक्ति को इसीलिए तनावयुक्त बनाती है, क्योंकि उसमें किसी भी वस्तु
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जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे (अ) नि.भा. 5164 (ब) बृह. भा. 2515
दुविहे बंधे - पेज्जबंधे चे दोसबंधे चेव । - स्थानांगसूत्र - 2 /4
उत्तराध्ययनसूत्र - 32/7
वही -
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समयसार - 150
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