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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
इस प्रकार, मन की जो चार अवस्थाएँ हैं, उनमें प्रथम दो अवस्थाएँ तनावयुक्त अवस्थाएँ हैं, तीसरी तनाव को समाप्त करने की होती है और चौथी में तनाव समाप्त हो जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर कहते हैं कि मन के संयमन से एकाग्रता आती है, जिससे साधक तनावमुक्ति की दिशा में अग्रसर होता जाता है। राग व द्वेष तनाव के मूलभूत हेतु -
संसार में दो तरह के पदार्थ हैं। एक चेतन (जीव) और दूसरा अचेतन (अजीव)। चेतन पदार्थ के होते हैं, जिन्हें सुख-दुःख की संवेदनाएं होती हैं और अजीव तत्त्व में अनुभव करने की या जानने की शक्ति नहीं होती और न उसे सुख-दुःख की वेदना होती है। वस्तुतः, सभी जीवों के सुख-दुःख को अनुभव करने की क्षमता अलग-अलग होती है। जीव जाति की अपेक्षा से एक होते हुए भी व्यक्तित्व की अपेक्षा से सब अलग-अलग हैं। सभी जीवों में तनावमुक्त होने की उत्कृष्ट संभावना विद्यमान है। जैन-शब्दावली में कहें, तो प्रत्येक भव्य जीव में परमात्मा बनने की क्षमता है। जीव का परमात्म–अवस्था अर्थात् तनावमुक्त अवस्था की ओर अग्रसर होने का सहज स्वभाव है। तनावमुक्त होना अथवा तनावग्रस्त होना- दोनों ही व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य-जीवन ही वह विशेष स्थिति है, जहाँ से जीव आत्मोन्नति कर मोक्ष अर्थात् तनावमुक्त दशा प्राप्त कर सकता है, अथवा आत्म-अवनति की ओर अग्रसर हो नारकीय जीवन जीने के लिए विवश हो सकता है।
मनुष्य में आत्मोन्नति की उत्कृष्ट संभावना निहित है, फिर भी हम देखते हैं कि व्यक्ति दु:खी है, तनावयुक्त है। विश्व का प्रत्येक प्राणी सुखी होना चाहता है, उसके सभी प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिए ही होते हैं, किन्तु सुख- प्राप्ति के सम्यक् मार्ग से अनजान होने के कारण उसके प्रयत्न सम्यक् दिशा में नहीं होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह तनावग्रस्त हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार, व्यक्ति में तनाव का कारण यही है कि वह सम्यक सोच को छोड, राग-द्वेष को ही तनावमक्ति का मार्ग समझ लेता है। वस्तुतः, तनाव का मुख्य कारण राग-द्वेष ही हैं। बन्धन के दो प्रकार हैं - प्रेम (राग) का बन्धन और द्वेष का बंधन, जो
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