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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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उसके कर्मों की अभिवृद्धि होती रहती है, अतएव जो मनुष्य तनाव से अपनी मुक्ति चाहते हैं, उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले लम्पट मन को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।
यह निश्चय है कि सभी प्रकारों के तनावों का जन्मस्थान मन है, किन्तु अगर इस मन को सम्यक् प्रकार से नियंत्रित किया जाए, तो यह विमुक्ति का मार्ग भी खोल देता है।
जैनदर्शन में हेमचन्द्राचार्य ने मन की चार अवस्थाएँ मानी हैं211. विक्षिप्त-मन, 2. यातायात-मन, 3. श्लिष्ट-मन और 4. सुलीन-मन। 1. विक्षिप्त-मन - यह मन की चंचल अवस्था है, जिसमें वह विषयों में भटकता रहता है। यह मन की अस्थिर अवस्था है। इस अवस्था में मानसिक-शान्ति नहीं रहती, क्योंकि मन सदैव ही विषयों के प्रति आसक्त बना रहता है। यह चित्त सदैव बाह्य पदार्थों से जुड़ा होता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है। 2. यातायात-मन - यह चित्त आवागमन से युक्त है। कभी वह बाहर जाता है, तो कभी अन्दर। जब वह बाहर से जुड़ता है, तो तनावों को जन्म देता है और जब वह अंतर्मन से जुड़ता है, तो तनाव से मुक्ति की ओर जाता है, किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण वह पुनः संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब वह स्थिर होता है, तनावमुक्ति का अनुभव करता है और जब-जब बाहर की ओर दौड़ता है, तनावयुक्त होता है। 3. श्लिष्टं-मन - यह मन की तनावमुक्त अवस्था है, क्योंकि यह मन स्थिर होता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह चित्त की अन्तर्मुखी अवस्था है। इस अवस्था में तनाव की उत्पत्ति नहीं होती। इसमें तनाव का अभाव होता है। मन का स्वभाव चंचलता है, वह बाहर जाता तो है, किन्तु साधक उसे स्थिर बनाए रखता है। इस स्थिरता में शांति का अनुभव होता है और साधक पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए प्रयत्नशील होता है। 4. सुलीन-मन - यह पूर्णतः शांति व तनावमुक्ति की अवस्था है, जिसमें संकल्प-विकल्प एवं मानसिक-वृत्तियों का लय हो जाता है। इस अवस्था में तनाव उत्पन्न करने वाली सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। यह परमानन्द की अवस्था है।
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