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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 109 साधना के द्वारा परमात्मा अर्थात् पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इस अवस्था में साधक सम्यग्दृष्टि होता है। वह 'स्व' तथा 'पर' के भेद को जानता है। वह सत्यता को समझता है व उसके अनुरूप ही अपना आचरण करता है, अर्थात् परपदार्थों पर रागादि भाव नहीं रखता है। तनाव का मुख्य कारण दुःख है और दुःख का कारण इच्छाओं या आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं होना है। शरीर, इन्द्रियों एवं मन की मांगें पूरी नहीं होने पर जो दुःख होता है, या उनकी पूर्ति करते समय जो बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, वे ही तनाव की स्थिति होती हैं। अन्तरात्मा ऐसी स्थिति में दुःख नहीं करती, अपितु दुःख के निराकरण हेतु साधना करती है। वह समझती है कि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, इसलिए इन्द्रियादि की इच्छाओं की पूर्ति नहीं करके उनका शमन कर देती है। ध्यानदीपिका-चतुष्पदी में भी यही वर्णित है- “अन्तरात्मा वही होती है, जो इन्द्रिय-विषयों के राग-द्वेष का त्याग करती है। 211 अन्तरात्मा के स्वरूप व लक्षणों को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव मोक्षप्राभृत में लिखते हैं- "जिसने भेदविज्ञान के द्वारा स्व-पर और आत्म-अनात्म का विवेक उपलब्ध कर लिया है, वही अन्तरात्मा है। 212 स्व और पर का भेद समझने पर व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो जाता है और 'पर-पदार्थों से मोह हटाकर स्व में रमण करता है। जैनदर्शन में कर्म-बंध का कारण मोहनीय कर्म को माना गया है और यही मोहनीय-कर्म तनावग्रस्तता का कारण भी है। वस्तुतः, अन्तरात्मा को चारित्रमोहनीय-कर्म का उदय विद्यमान रहने से वह विषयोपभोग में प्रवृत्ति तो करती है, किन्तु उसमें लिप्त या आसक्त नहीं होती। अन्तरात्मा संसार में रहकर सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर तप-संयम को ग्रहण करती है और पूर्व कर्मों की निर्जरा व नये कर्मों का संवर करती हुई चार घातीकों का क्षय करके परमात्मा हो जाती है। - व्यक्ति के अंदर वासना और विवेक- दोनों ही विद्यमान रहते हैं। वासनाएँ तनाव उत्पन्न करती हैं, तो विवेक वासनाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है। ये वासनाएँ ही व्यक्ति में कषायादि प्रवृत्तियाँ लाती हैं। कषायरूपी आत्मा का चित्त कभी भी शांत नहीं रहता। अन्तरात्मा वह 211 ध्यान-दीपिका चतुष्पदी - 4/8/3-6 212"णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परतिग्गहं पयत्तेण अच्यणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण।।9।। मोक्षप्राभृतम् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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