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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
के अनुसार, जो सम्यकदृष्टि नहीं है, वह बहिरात्मा है। 'कुन्दकुन्द की दृष्टि में जिस आत्मा की सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यकचारित्र - इन रत्नत्रय की साधना में श्रद्धा नहीं होती, वह बहिरात्मा है। 207 योगेन्ददेव बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - 'जो रागादिभाव हैं, वे कषायरूप हैं और जब तक अनन्तानुबन्धी- कषाय का उदय रहता है, तब तक व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टि ही. बहिरात्मा है। 208 यह मिथ्या दृष्टि ही व्यक्ति को तनावग्रस्त कर देती है। वस्तुतः, जैन आचार्यों ने बहिरात्मा के जो लक्षण कहे हैं, मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में वे ही तनाव के मुख्य कारण हैं।
अन्तरात्मा एवं तनावमुक्ति का प्रयास
अन्तरात्मा आत्मा की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति साधक बन जाता है और पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। अन्तर्मुखी आत्मा देहात्म-बुद्धि से रहित होता है, क्योंकि वह आत्मा और शरीर अर्थात् 'स्व' और 'पर' की भिन्नता को भेदविज्ञान के द्वारा जान लेता है। जो बहिर्मुख आत्मा है, वह बहिरात्या है और इसके विपरीत, जो बहिर्मुखता से विमुख आत्मा है, वही अन्तरात्मा है। बहिरात्मा के लक्षण ही तनाव के मुख्य कारण हैं, तो अन्तरात्मा बनना ही तनावमुक्ति का हेतु है।
समयसार नाटक (साध्यसाधक द्वार) में लिखा है कि जिसके हृदय में मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश हो गया है, जिनकी मोह-निद्रा समाप्त हो गई है, जो संसार-दशा से विरक्त हो गए हैं, वे ही आत्माएँ अन्तरात्मा हैं। यह अन्तरात्मा ही तनावमुक्ति के लिए प्रयत्नशील रहती है। जो आत्मा शरीरादि बाह्य-पदार्थों में आसक्त नहीं होती है, अथवा संसार में रहते हुए भी अलिप्त भाव से रहती है, वही अन्तरात्मा होती है। ऐसी ही आत्मा तनाव के कारणों को समझकर तनावमुक्ति का अनुभव करने लगती है। उसे इस बात का अनुभव होने लगता है कि बहिरात्मा या बहिरात्म-भाव होने के कारण ही वह तनाव में है, तब वह तनाव से मुक्ति पाने का प्रयत्न करने लगती है। जैनदर्शन की भाषा में कहें, तो आत्मा की इस दूसरी अवस्था में व्यक्ति साधक बन जाता है और
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नियमसार, गाथा- 149, 150 परमात्मप्रकाश - 2/41 मोक्खपाहुड - 5,9 समयसार नाटक, बनारसीदासजी, 4
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