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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
5. निरुद्ध - चित्त यह पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त इन्द्रियों के विषयों का भोग नहीं करता । यह मन की स्थिर और शांत अवस्था है। चित्त की सभी वृत्तियों का लोप होने से यह तनावमुक्त अवस्था है, जिसे जैनधर्म के शब्दों में मोक्ष कह सकते हैं ।
इस विवेचन से हम यह कह सकते हैं कि भले ही नामों में अन्तर है, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं है । योगदर्शन में चित्त की जो पाँच अवस्थाएँ बताई गई हैं, उनमें से प्रथम दो क्षिप्त एवं मूढ़ जैनदर्शन के विक्षिप्त मन और बौद्धदर्शन के कामावचर चित्त के समान ही है। तीनों के लक्षण भी एक समान ही हैं ।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि चित्त-वृत्तियों या वासनाओं अथवा विषयों के प्रति आसक्ति का विलयन ही तनावमुक्ति का साधन है।
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बौद्धदर्शन में चैत्तसिक धर्म और तनाव
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बौद्धदर्शन में बावन चैत्तसिक धर्म माने गए हैं।' सभी चैतसिक धर्म वे तथ्य हैं, जो चित्त की प्रवृत्ति के हेतु हैं । हेतु के आधार पर चित्त दो प्रकार का माना गया है
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1. अहेतुक
एवं 2. सहेतुक ।
1. अहेतुक - चित्त- जिस चित्त की वृत्ति में लोभ, द्वेष आदि कोई कार्य नहीं होते वह अहेतुक चित्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जिस चित्त में तनाव - उत्पत्ति का कोई हेतु नहीं रहता है, वह अहेतुक - चित्त है, तनावमुक्त चित्त है।
2. सहेतुक - चित्त जिस चित्त की वृत्ति में लोभ-द्वेष और मोह तथा अलोभ, अद्वेष और अमोह- इन छह हेतुओं में से कोई भी हेतु होता है, वह सहेतुक - चित्त है। इस चित्त में तनाव उत्पत्ति के हेतु निहित रहते हैं, क्योंकि यहाँ संकल्प-विकल्प तो होते ही हैं। अलोभ, अद्वेष और अमोह चित्त में भी दूसरे के प्रति परोपकार की वृत्ति होने के कारण या दूसरों के भी हित की चिन्ता रहने के कारण यह अलोभ, अद्वेष और अमोह रूप चित्त भी सहेतुक होता है। यह पुण्यरूप चित्त है।
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198 अभिधम्मत्थसंगहो, चैत्तिसिक संग्रह विभाग, पृ. 10-31
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