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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 3. श्लिष्ट मन - यह मन की स्थिरता की अवस्था है। जैसे-जैसे स्थिरता बढ़ती है, वैसे-वैसे मन तनावमुक्ति के लिए अग्रसर होता जाता 4. सुलीन मन - यह पूर्ण तनावमुक्ति की अवस्था है, क्योंकि इसमें संकल्प-विकल्प, मानसिक वृत्तियाँ, वासनाएँ आदि शांत हो जाती बौद्धदर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ - 'अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार, बौद्धदर्शन में भी चित्त की चार अवस्थाएँ हैं - 1. कामावचर, 2. रूपावचर, 3. अरूपावचर और 4. लोकोत्तर95 1. कामावचर चित्त - यह मन की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति कामनाओं और वासनाओं के पीछे भागता रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति के मन में संकल्प- विकल्प चलता ही रहता है। अपनी कामनाएँ पूरी होने पर वह स्वयं को तनावमुक्त समझता है, किन्तु कुछ ही क्षण में कोई नई कामना जग जाती है, जो उसे तनावग्रस्त बना देती है। कामना पूरी होने पर भी जो उसे क्षणिक तनावमुक्ति का अनुभव होता है, वस्तुतः वह तनावग्रस्तता की ही अवस्था है, क्योंकि तृष्णा जीवित रहती है। यह अवस्था जैनदर्शन के विक्षिप्तचित्त के समान है। 2. रूपावचर चित्त, - यह अवस्था यातायात मन के समान ही है। इसमें मन अस्थिर तो रहता है, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। बिना किसी संकल्प-विकल्प के जब शांति का अनुभव होता है, तो उस क्षण को बनाए रखने का प्रयास भी होता है, किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण व्यक्ति बाहरी ऐन्द्रिय विषयों में उलझ जाता है और तनावग्रस्त हो जाता 3. अरूपावचर चित्त - यह चित्त की स्थिर अवस्था है। इसमें चित्त पूर्णतः तनावमुक्त. तो नहीं होता है, लेकिन तनावग्रस्त भी नहीं रहता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय अत्यन्त सूक्ष्म, जैसे- अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनता होते हैं।198 195 अभिधम्मत्थसंगहो, पृ. 1 196 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 495 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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