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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
शरीर-दोनों को प्रभावित करता है। शरीर उनकी पूर्ति की अपेक्षा रखता है, तो आदर्श मन (Super Ego) उसे नकारने का प्रयास करता है। इससे चैतसिक-संतुलन भंग होता है और तनाव उत्पन्न होता हैं। इस प्रकार, चेतना के उपर्युक्त तीनों स्तर संघर्षशील होकर व्यक्ति को तनावग्रस्त बना देते हैं। इस प्रकार फ्रायड आदि मनोवैज्ञानिकों ने मन के जो तीन स्तर बताए हैं, उनमें वासनात्मक- मन (d) और आदर्शात्मक-मन (super Ego)- दोनों संघर्षशील होकर तनाव का कारण बनते हैं। इस प्रकार, मन के उपर्युक्त इन तीन स्तरों का भी . तनाव से सह-सम्बन्ध देखा जा सकता है। .. जैन, बौद्ध और योगदर्शन में मन की अवस्थाएँ -
___ मन क्या है? उसका स्वरूप क्या है? वह किस प्रकार तनाव उत्पन्न करता है एवं किस प्रकार तनावों से मुक्त करता है ? वस्तुतः, मन के अनेक स्तर हैं, जिनका सम्बन्ध तनाव और तनावमुक्ति से है, जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ हम जैन, बौद्ध और योगदर्शन में मन की जो अवस्थाएँ वर्णित हैं और उनका तनाव से क्या सह-सम्बन्ध है ? इसकी विस्तार से चर्चा करेंगे।
__ जैन, बौद्ध और योगदर्शन के अनुसार, मन ही तनाव की जन्मभूमि है और मन ही तनावमुक्ति का साधन भी है। मन की इन विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर ही मन बन्धन और मुक्ति का कारण माना जाता है। जैनदर्शन में मन की अवस्थाएँ - आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाएँ मानी हैं - 1. विक्षिप्त मन, 2. यातायात मन, 3. श्लिष्ट मन और 4. सुलीन मन 1. विक्षिप्त-मन - यह चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, अस्थिर होता है। अस्थिर मन तनावयुक्त होता है। 2. यातायात-मन - इस अवस्था में मन की भाग-दौड़ बनी रहती है। मन कभी बाह्य-विषयों की ओर जाता है, तो कभी अन्तरात्मा में स्थित होता है। इस अवस्था में क्षण भर के लिए शांति का अनुभव होता है और फिर मन तनावग्रस्त हो जाता है।
194 योगशास्त्र - 12/2
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