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७२ तत्त्वार्थ सूत्र किन्तु यह 'माय' के अर्थ में रूढ़ है, अतः समभिरूढ़ नय 'गो' शब्द 'गाय' की ही विवक्षा करता है, अन्य अर्थों की नहीं करता ।
(७) एवंभूत नय - यह केवल वर्तमान काल की क्रिया को ही ग्रहण करता है । जैसे-'इन्द्र' को तभी इन्द्र कहना जब वह ऐश्वर्य सहित हो, 'वज्रपाणि' तभी कहना जब उसके हाथ में वज्र हो । यह पर्यायवाची शब्दों में भी भेद करके मुख्यवाची शब्द को ग्रहण करता ह।
वैसे नयों के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं - (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक । उपरोक्त वर्णित सातों नयों का समावेश इन दो भेदों में हो जाता है- नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये चार पर्यायार्थिक नय है ।
नयों का पारस्परिक सम्बन्ध - यह सातों नय परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । इनकी विशेषता यह है कि पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तरउत्तर नय का विषय अल्प (सूक्ष्म) हो जाता है।
नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करता है; जबकि संग्रहनय विशेष को गौण कर सिर्फ सामान्य को ग्रहण करता है और व्यवहारनय विशेष पर अपनी दृष्टि जमाता है, सामान्य को गौण कर देता
ऋजुसूत्र नय वर्तमान काल की पर्याय को मुख्यता देता है; जबकि शब्द नय व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों (लिंग, वचन आदि की अशुद्धियों) को दूर करके सही शब्द के प्रयोग को मुख्यता प्रदान करता है । समभिरूढ़ नय पर्यायवाची शब्दों के भेद को स्वीकार नहीं करना जबकि एवं भूत नय इन भेदों को भी स्वीकार करता है ।
इस प्रकार इन नयों का विस्तार-क्षेत्र कम होता चला गया है ।
अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना आदि में इन नयों का एक दूसरी अपेक्षा से भी वर्गीकरण किया गया है । वहाँ नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय-इन चारों नयों को 'अर्थनय' बताया गया है तथा शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय को 'शब्दनय' कहा गया है ।
इसका कारण यह दिया है कि प्रथम चार नय अर्थ को अपना विषय बताते हैं, इसलिए 'अर्थनय' हैं और अन्तिम तीन नयों का विषय प्रमुख रूप से शब्द हैं, इसलिए ये 'शब्दनय ' हैं ।
नयों के प्रकारों के विषय में आचार्य सिद्धसेन ने बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कही हैं । वे कहते हैं ।
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