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________________ ६८ तत्त्वार्थ सूत्र है, लौकिक दृष्टि से विशेष ज्ञानी और विशेषज्ञ (Specialists) भी आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञानी अथवा मिथ्याज्ञानी हो सकते हैं । लौकिक दृष्टि में सांसारिकता प्रधान होती है। समस्त वैज्ञानिक, चिकित्सक, कलाकार, साहित्यकार और अनेक योगी-तपस्वी भी सांसारिक दृष्टि से सत्य कहे जा सकते हैं । उनकी भविष्यवाणियाँ और बताये गये परिणाम सत्य प्रमाणित हो सकते हैं । ___आज पुद्गल परमाणु (atom) जैनदर्शन की दृष्टि से स्कंध पर बहुत कार्य हो रहा है, इसकी संरचना को समझा जा रहा है, विखंडित करके प्रचंड ऊर्जा प्राप्त की जा रही हैं । तथा जो परिणाम निकाले जा रहे हैं, वे सत्य प्रमाणित हो रहे हैं । इसी प्रकार आकाशीय नक्षत्रों, ग्रहों तथा सागर तल एवं पृथ्वी पर भी अनेक खोजें करके परिणाम प्राप्त किये जा रहे हैं ।। किन्तु यहाँ यह लौकिक दृष्टि और ज्ञान अपेक्षित नहीं है, न इस दृष्टि से विपरीतता अथवा विपर्ययता ही कही गई हैं । अपितु यहाँ मति, श्रुत, अवधि-इन तीनों ज्ञानों को विपरीत कहने का हेतु आध्यात्मिक है । अर्थात ऐसे ज्ञान जो आत्मशुद्धि एवं मोक्ष प्राप्ति में बाधक होते हैं । जीवादि तत्त्वों का भली-भाँति सत्य-तथ्य ज्ञान प्राप्त न करके, अपनी मनोकल्पना से जैसा चाहे, वैसा मान लेना-यही विपरीतता है, अज्ञान हैं । आगम वचन - सत्त मूलणया पण्णत्ता - णेगमे, संग्गहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूए । - अनुयोगद्वार, १२६, १२६; स्थानांग स्थान ७, ५५२ सात मूल नय कहे गये हैं - (१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूढ और (७) एवंभूत नय । नयों के नाम एवं प्रकार - नैगम संग्रह व्यवहारजूं सूत्रशब्दा नयाः । ३४ । आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ।३५। (१) नैगम (२) संग्रम (३) व्यवहार (४) ऋजुसूत्र (५) शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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