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________________ भगवान महावीर ने फरमाया है। स्व- कथ्य चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणी य जंतुणो । माणुसत्त सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ अर्थात् इस अनादि - अनन्त संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए आत्मा को (मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यावश्यक) चार अंगों की प्राप्ति उत्तरोत्तर दुर्लभ है, वे अंग हैं (१) मनुष्यत्व, (२) धर्मश्रवण (३) धर्मश्रद्धा और (४) संयम में पुरूषार्थ । - मनुष्यत्व प्राप्त होने पर भी सद्धर्म का श्रवण बहुत दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्य जन्म पाने के बाद भी जब तक आर्य क्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, सर्वांग परिपूर्णता, नीरोगता, पूर्ण पुण्य, परलोकप्रवण बुद्धि नहीं प्राप्त होती तब तक सम्यक् श्रुत श्रवण का अवसर उपलब्ध नहीं होता । - Jain Education International - - उत्तरा ०३/१ साथ ही यह भी सत्य है कि सम्यक् श्रुत का श्रवण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के लिए अनिवार्य है। क्योंकि इनकी प्राप्ति के उपरान्त ही संयम में पराक्रम अथवा सम्यक्चारित्र का पालन किया जा सकता है। यानी सम्यक्चारित्र को व्यवहार में 'अहिंसा' शब्द से भी उपलक्षित किया जाता है, अहिंसा चारित्र का संकेत - शब्द है । इसीलिए भगवान ने कहा है पढमं नाणं तओ दया ) अर्थात् ( पहले ज्ञान प्राप्त करो, फिर दया का पालन 'दया' से यहाँ सम्यक्चारित्र ही अभिप्रेत है। - इस प्रकार मोक्ष - मार्ग की पहली कड़ी है - सम्यक्ज्ञान । मध्य का बिन्दु जो दोनों को जोड़ता है, वह है - सम्यक् श्रद्धा (दर्शन) और अंतिम कड़ी है - सम्यक्चारित्र । यह त्रिकोण जुड़कर बनता है - मोक्षमार्ग । मोक्षमार्ग की ओर गतिशील साधक, चाहे वह श्रमण हो या श्रावक, उसके लिए ज्ञानप्राप्ति अनिवार्य है। ज्ञान चक्षु है, ज्ञान आलोक है, णाणं चक्खू, णाणं पयासयरं - आदि वचन यह बताते हैं कि साधना पथ पर बढ़ने वाले साधक को सर्वप्रथम ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) देवता की आराधना करनी पड़ती है। - सं वर प्राचीन जैन आगमों में श्रमणों को ही नहीं श्रावकों को भी ज्ञान का परम उपासक, साधक बताया गया है। भगवतीसूत्र में उल्लेख है कि भगवान महावीर के श्रावक ज्ञान के गहरे अभ्यासी होते थे - " अभिगय जीवा - जीवा, उवलद्ध पुण्ण-पावा, आसव-निज्जर-किरियाहिगरणं- बंध - मोक्ख - कुसला " - यह उन श्रावकों का वास्तविक परिचय है। जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्त्रव - संवर, निर्जरा- क्रियाधिकरण, बंध-मोक्ष इन तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर वे कुशल तत्त्ववादी श्रावक के रूप में प्रसिद्ध थे । इससे यह भी ध्वनित हो गया है कि साधना के क्षेत्र में ज्ञान की दिशा - आत्माभिमुखी होती है। आत्म स्वरूप अर्थात् जीव - अजीव आदि नवतत्त्व का ज्ञान ही साधक के लिए मुख्य अभिप्रेत है। साधक सर्वप्रथम नवतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर आगे साधना - क्षेत्र में कुशलतापूर्वक बढ़ सकता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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