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________________ ( ६ ) प्राचीन समय में ज्ञान प्राप्ति के मुख्य स्त्रोत आगम थे । आगम का अध्ययन और श्रवण प्रत्येक श्रमण एंव श्रावक के लिए अनिवार्य था । आगमों के बाद प्रकीर्णक, चूर्णि, भाष्य आदि ग्रन्थों की भी रचना हुई । अनेक आचार्यों ने अपनी-अपनी सुझ बुझ के अनुसार स्वतंत्र ग्रन्थों की भी रचना की और अपने-अपने शिष्य समुदाय में उनके अध्ययन आदि की परम्परा चालू की। भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् धीरे-धीरे प्राकृत भाषा के ज्ञान की धारा भी क्षीण हो गयी, आगम ज्ञान भी लुप्त-सा होने लगा और अन्य नये-नये ग्रन्थों की रचनाएँ होने लगीं । अतःश्रुतज्ञान के अभ्यासी को समग्र जैनदर्शन (नवतत्त्व ) का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक ग्रन्थों को टटोलना पड़ता था । उनकी भाषा प्राकृत-शौरसेनी • मिश्रित एवं प्रतिपादन शैली गम्भीर होने से प्रारम्भिक विद्यार्थियों (शैक्षों) के लिए बड़ी दुरूह व समझने में जटिल हो गई थी । आवश्यकता आविष्कार की जननी है। तत्त्वार्थ सूत्र का प्रणयन भी युग की उक्त जटिल समस्या का स्थायी समाधान और महती आवश्यकता की सम्पूर्ति थी । तत्त्वार्थ सूत्र जिसका पूरा नाम है - तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र ( तत्त्वों का ज्ञान कराने वाला संक्षिप्त ग्रन्थ) श्वेताम्बर एंव दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में यह ग्रन्थ मान्य है। यह समग्र जैन-दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी शैली बहुत ही संक्षिप्त-सारपूर्ण तथा भाषा ललित-सुगम है। आइए, इसकी रचना एवं स्वरूप आदि विषयों की पहले संक्षिप्त जानकारी कर लें । ग्रन्थकार परिचय तत्त्वार्थ सूत्र के रचनाकार है, वाचक उमास्वाति । जैन इतिहास में ये उमास्वामि या उमास्वाति के नाम से ही प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है - उनकी माता का नाम 'उमा' था पिता थे 'स्वाति' । प्रारम्भ में सम्भवतः उनका नाम कुछ अन्य रहा होगा, किन्तु माता-पिता के प्रति अनन्य भक्ति व उपकार • भावना की स्मृतिस्वरूप उन्होंने स्वयं को 'उमास्वाति' नाम से ही प्रसिद्ध कर दिया । - तत्त्वार्थ सूत्र पर स्वयं रचित कारिकाओं में उन्होंने अपना परिचय 'उमास्वाति' के रूप में ही दिया है। ग्यारह अंगो के ज्ञाता घोषनन्दी क्षमा-श्रमण के पास उन्होने दीक्षा ग्रहण की, तथा वाचक वंश के मुख्य आचार्य 'शिवश्री' के पास विद्याध्ययन किया । आचार्य उमास्वाति बड़ी कुशाग्र मेधा के धनी थे। आगमों के अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों का गम्भीर ज्ञान भी उन्होंने प्राप्त किया। उस युग में जैन श्रमणों में संस्कृत भाषा का अध्ययन उपेक्षित-सा था, परन्तु आपने प्राकृत आदि भाषाओं के समान ही संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त कर उसमें ग्रन्थ रचना की । कहा जाता है- आपने ५०० ग्रन्थों की रचना की । वर्तमान में इनकी प्रशमरति (प्रकरण ) एंव तत्त्वार्थ सूत्र दो रचनाएँ उपलब्ध हैं। तत्त्वार्थ सूत्र - एक ऐसी कृति है जो उमास्वाति के गम्भीर शास्त्रज्ञान, अद्भूत भाषा ज्ञान, रचना कौशल और उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय देने में पर्याप्त है। इस रचना ने न केवल उमास्वाति को अमर बना दिया, बल्कि भारतीय दर्शन साहित्य के गगन में उन्हें एक तेजस्वी नक्षत्र के समान सदा-सदा के लिए स्थापित कर दिया। उनके पूर्व जीवन के विषय में अनेक विद्वानों ने खोज की है किन्तु कोई विशेष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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