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________________ ३० तत्त्वार्थ सूत्र इसी प्रकार वह अपनी आत्मा के भाव राग-द्वेष कषायों के प्रवाह में बहते देखकर कंपित हो उठता है, जानता है ये भाव मेरी आत्मा के लिए दुःख के कारण हैं, अतः वह अपनी निज की परिणति को कषायों से हटाकर, स्वात्मभाव में लगाता हैं । यह उसकी स्वात्म अनुकंपा अथवा स्वदया है । (५) आस्तिक्य - इसका अभिप्राय है अस्तित्व अथवा सत्ता में विश्वास करना, किन्तु वह अस्तित्व मिथ्या, कल्पना की उड़ान मात्र न हो, सत्य हो, तथ्य हो, वास्तविक हो । ___आस्तिक्य गुण को पूरी तरह प्रगट करने के लिए आचारंग (१।१) में एक सूत्र आया हैं - ... से आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी । - वह जीव आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी, क्रियावादी होता है । सम्यक्त्वी लोक-परलोक, पुनर्जन्म, आत्मा-परमात्मा, आस्त्रव बंध मोक्ष आदि तत्वों के बारे में जिन-प्रणीत सिध्दांतो दृढ विश्वास एवं आस्था करता है यही उसका आस्तिक्य गुण है । इस प्रकार सम्यक्त्व के क्षायिक, औपशामिक, क्षायोपशमिक, वीतराग, सराग, निश्चय, व्यवहार, पौद्गलिक, अपौद्गलिक आदि अनेक भेद हैं, किन्तु प्रमुख भेद दो ही हैं - निसर्गज और अधिगमज । शेष सभी प्रकार इन्ही के उपभेद हैं । इसीलिए आचार्य ने सूत्र में इन दो का ही नाम गिनाया हैं, इन्ही दो में सभी प्रकार के सम्यक्त्व गर्भित हो गये हैं । आगम वचन - जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा ।। संवरो निजरा मोक्खो सन्तेए तहिया नव । - - उत्तरा. २८/१४ (जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष - यह नौ तत्व है ।) नव सब्भावपयत्था पण्णत्ता, तंज हाजीवा अजीवा पुण्णं पावं आसवो संवरो निजरा बंधो मोक्खा। ___ - ठाणं. ठा. ९, सु. ६६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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