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________________ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org (५) दूषण (अंतिचार) (५) १. शंका २. काक्षा ३. विचिकित्सा ४. मिथ्यादृष्टि प्रशंसा ५. मिथ्यादृष्टि संस्तव (९) यतना ( ५ ) १. वन्दना २. नमस्कार ३. दान ४. अनुप्रदान ५. आलाप ६. सलाप सम्यग्दर्शन शुद्धि के निमित्त (६७ बोल) (६) प्रभावना ( ८ ) १. प्रवचन द्वारा २. धर्मकथा द्वारा ३. वादशक्ति द्वारा ४. निमित्तज्ञान द्वारा ५. तपस्या द्वारा ६. विद्याबल द्वारा ७. सिद्धि द्वारा ८. कवित्व शक्ति द्वारा (१०) आगार ( ७ ) १. राजाभियोग २. गणाभियोग ३. बलाभियोग ४. देवाभियोग ५. गुरुनिग्रह ६. वृत्तिकान्तार ३. ४. ५. " " 17 " (११) भावानाएँ (६) १. सम्यग्दर्शन धर्म रूपी वृक्ष का मूल है १. आत्मा है २. नगर का द्वार है " " " ।। " " " " " (७) भूषण (५) १. जिनशासन कुशलता महल की नींव है धार्मिक जगत का आधार है धर्मरूपी वस्तु को धारण करने का पात्र है गुणरत्नों को रखने की निधि है "1 २. प्रभावना ३. तीर्थसेवना ४. स्थिरता ५. भक्ति क्रमशः (८) लक्षण ( ५ ) १. उपशम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अनुकपा ५. आस्तिक्य (१२) स्थानक (६) २. आत्मा नित्य है ३. आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। ४. आत्मा कृतकर्मों के फल का भोक्ता ह ५. आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता मुक्ति का उपाय है ६. अध्याय १ : मोक्षमार्ग २९
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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