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________________ ४४४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ३७-३८ आज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाकविचय और (५) संस्थानविचय । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार समझा जा सकता है (१) आज्ञाविचय - किसी सूक्ष्म विषय में अपनी मतिमन्दता तथा योग्य उपदेशदाता के अभाव में स्पष्ट निर्णय की स्थिति न बन सके, उस समय वीतराग भगवान की आज्ञा को प्रमाण मानकर वह कैसी और किस प्रकार की हो सकती है, इस विषय में चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। ... (२) दोषों के स्वरूप और उनसे त्राण पाने हेतु चिन्तन अपायविचय धर्मध्यान है। अपाय दोषो को कहा जाता है। (३) विपाक- कर्मों की अनुभाव शक्ति का विचार, किस कर्म का कैसा शुभ या अशुभ विपाक होता है, उन कर्मों की फलदायिनी शक्ति का चिन्तन विपाकविचय धर्मध्यान है । . (४) संस्थान का अभिप्राय आकार है। संस्थानविचयधर्मध्यान में जीव लोक के आकार, उसकी रचना आदि विषय का चिन्तन करता है। यह धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान वाले साधुओं को होता है और उपशान्तकषाय तथा क्षीणकषाय-ग्यारहवे-बारहवें गुणस्थान वालों को भी सम्भव है, अर्थात् इन गुणस्थानों में भी हो सकता है ।। स्थिति यह है कि धर्मध्यान की भूमिका चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से बनती है, उससे ऊपर के सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान है ही (यद्यपि पाँचवे गुणस्थान तक रौद्र ध्यान की और छठवें तक आर्तध्यान की सम्भावना है, किन्तु सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान ही है, दोनों अप्रशस्त ध्यानों में से एक भी नहीं है) और ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में भी धर्मध्यान सम्भव है, वहाँ भी यह ध्यान हो सकता है। किन्तु सम्यक्त्व से नीचे अर्थात् पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर तीसेर मिश्रदृष्टि गुणस्थान तक धर्मध्यान स्वीकार नहीं किया गया है, इसका कारण यह है कि शास्त्रों में धर्मध्यान उसी को माना गया है, जो जीव को मुक्ति-प्राप्ति में सहायक हो , और मुक्ति की ओर जीव के कदम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर ही बढ़ सकते है । अतः सम्यक्त्वी ही धर्मध्यान का अधिकारी मिथ्यादृष्टि आदि के जो कषाय-अल्पता, तप-जप आदि होते हैं, वे पुण्य के- स्वर्ग-प्राप्ति के, शरीर और सांसारिक सुखों के कारण तो बनते हैं, किन्तु मुक्ति के-आत्मिक सुख के कारण नहीं बनते है। धर्मध्यान के चार लक्षण है - (१) आज्ञारुचि (२) सूत्र रुचि (निसर्ग) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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