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________________ संवर तथा निर्जरा ४४३ वाले जीव नरकायु बाँधते ही नहीं, इसलिए रौद्रध्यान ऐसे जीवों को होता भी है तो अधिक तीव्र नहीं होता और अधिक समय तक ठहरता भी नहीं । ऐसे जीव अपने परिणामों को शीघ्र ही सम्भाल लेते हैं । पहले से तीसरे गुणस्थान तक के जीवों को तो यह होता ही रहता है। विशेष - यहाँ तप का वर्णन चल रहा है और आर्त तथा रौद्र दोनों ही ध्यान अप्रशस्त है, त्याज्य हैं, हेय हैं, ये तप तो त्रिकाल में भी नहीं है। किन्तु फिर भी इनका वर्णन सूत्रकार ने इस दृष्टि से किया प्रतीत होता है कि इन्हें जानना चाहिए और जानकर त्याग देना चाहिए, इनका आचरण (आर्त-रौद्र ध्यान का) तो कभी भी नहीं करना चाहिए । यह बात उत्तराध्ययन के उद्धरण से स्पष्ट संकेतित है । आगम वचन धम्मे झाणे चउविहे (चउप्पडोवयारे) पण्णत्ते तं जहाआणाविजए अवायविजए विवागविजए संठाणविजए । - भगवती, शु. २५, उ. ७ सूत्र (धर्मध्यान चार प्रकार का तथा चतुष्प्रत्यवतार' कहा गया है - (१) आज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाकविचय और (४) संस्थानविचय । यह धर्मध्यान चौथे असंयत, पाँचवें देशसंयत, छठे प्रमत्तसंयत और सातवें अप्रमतसंयत - इन चार गुणस्थानों में होता है।) धर्मध्यान के भेद और संभाव्यता - आज्ञापायविपाक संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।३७ । उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ।३८ । (१) आज्ञा (२) अपाय (३) विपाक और (४) संस्थान-इनके विचार करने के लिए चित्त को एकाग्र - स्थिर करना धर्मध्यान है । यह धर्मध्यान अप्रमत्तसयत को. होता है। (यह धर्मध्यान) उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान वाले जीवों को भी सम्भव है । विवेचन - विचय का अर्थ विचारणा, गहरी विचारणा, सतत विचारणा है, यह चिन्तन भी है। सूत्र में आये हुए आज्ञा आदि शब्दों के साथ विचय का योजन करने पर धर्मध्यान के चारों भेदों के नाम बनते हैं - (१) १. चतुष्प्रत्यवतार का अर्थ है, भेद, लक्षण, आलम्बन और अनप्रेक्षा से चार पद वाला जिसका वर्णन आगे किया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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