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________________ संवर तथा निर्जरा ४४५ रुचि और (४) अवगाढ़ (उपदेश) रुचि । (इनका विवेचन सम्यक्त्व के प्रसंग में हो चुका है। धर्मध्यान के चार अवलम्बन है - (१) वाचना (२) प्रच्छना (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा । (इनका स्वरूप स्वाध्याय तप के भेदों में समझाया जा चुका है ।) धर्मध्यान की चार भावनाए हैं - (१) एकत्वानुप्रेक्षा (२) अनित्यानुप्रेक्षा (३) अशरणानुप्रेक्षा और (४) संसारानुपेक्षा । (इनका विवेचन इसी अध्याय के सूत्र संख्या ७ के अन्तर्गत किया जा चुका है । इन आलम्बनों, अनुप्रेक्षाओं आदि से धर्मध्यान में स्थिरता और दृढ़ता का समावेश होता है। आगम वचन सहमसंपरायसरागचरित्तारिया य जाव ... खीणकसायवीयरायचरित्तारिया य । सूक्ष्मसंपराय सराग चारित्र वाले आर्य, बादरसंपराय सरागचारित्र वाले आर्य, उपशांतकषाय वीतराग चरित्र वाले आर्य और क्षीणकषाय वीतरागचारित्र वाले आर्य (इनके पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क नाम के दो शुक्ल ध्यान होते हैं ।) . सजोगिकेवलिखीणकसायचरित्तारिया य अजीगिकेवलिखीणकसाय वीयरायचरित्तारिया य । - प्रज्ञापना पद १, चारित्रार्यविषय (सयोगिकेवलिवीतरागचारित्र वाले आर्यों के और अयोगि केवलि-क्षीण कषायवीतरागचारित्र वाले आर्यों के (सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम के दो शुक्लध्यान होते हैं ।) - सुक्के जाणे चउविहे चउप्पडोवयारे पण्णत्ते; तं जहा पुहुत्तवितवके सवियारी १, एगत्तवितवके अवियारी २, . सुहुमकिरिते अणियट्टी ३, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाती ४। . - भगवती, श. २५, उ. ७, सूत्र २४६ (शुक्लध्यान के चार भेद (तथा चार पद) होते हैं - (१) पृथक्त्व वितर्क सविचारी , (२) एकत्ववितर्क अविचारी, (३) सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति अथवा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और (४) समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती अथवा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ।) (जो एक द्रव्य में पूर्वगतश्रुत के अनुसार अनेक नयों के द्वारा उत्पाद, व्यव, ध्रौव्य आदि पर्यायों का विचार सहित अर्थ, व्यंजन और योग का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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