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________________ ४४० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ३१-३५ यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत गुणस्थान वालों के होता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र ३१ से ३४ तक के चार सूत्रों में आर्तध्यान के चार प्रकार बताये हैं और सूत्र ३५ में यह बताया गया है कि आर्तध्यान किन जीवों (प्राणियों) को होता है। अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत का अर्थ अविरत का अर्थ यहाँ अविरत सम्यग्दृष्टि मात्र नहीं है, अपित मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानवाले जीवों से है। देशविरत का अभिप्राय अणुव्रती (गृहस्थ ) और प्रमत्तसंयत (छठवें गुणस्थानधारी सर्वविरत श्रमण साधु-साध्वी होते हैं । - ― इसका अभिप्राय यह है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व के सभी जीवों को तो आर्तध्यान ही रहता है और आगे के गुणस्थानों में यानी अविरत सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, गृहस्थ तथा सर्वव्रती साधु को भी यह हो सकता है। 'हो सकता है' अथवा 'संभव है' यह कहने का हमारा अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साथ ही जीव में धर्मध्यान का स्पर्श हो जाता है। मान लीजिए एक गृहस्थ श्रावक सामायिक में बैठा है, या माला जप रहा है अथवा कोई अन्य धार्मिक क्रिया कर रहा है, उस समय यद्यपि उसका चौथा अथवा पाँचवाँ गुणस्थान ही है फिर भी वहाँ आर्तध्यान नहीं है, धर्मध्यान ही है । इसी प्रकार प्रमत्तसंयत सर्वविरत साधु यतनापूर्वक मार्ग शोधकर गमन आदि क्रिया कर रहा है तो उसे भी धर्मध्यान है। हाँ, जब कभी इन तीनों गुणस्थान (सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत ) वाले जीवों की चित्तवृत्ति अमनोज्ञ को दूर करने आदि की ओर चली जाय तो इनको आर्तध्यान भी होता है। यहाँ इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती साधक को सांसारिक- पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करते रहने के कारण तथा देहासक्ति से पूर्णतया विरक्ति एवं परिग्रह का संपूर्ण त्याग न होने के कारण आर्तध्यान अधिक होता है; जबकि संपूर्ण त्यागी श्रमण को बहुत कम । इनमें भी अणुव्रती और सर्वव्रती साधक को 'निदान' के अतिरिक्त तीन प्रकार का आर्तध्यान ही संभव है। इसका कराण यह है कि 'निदान' ( आगामी जन्म में काम-भोगों का अथवा किसी से बदला लेने का दृढ़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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