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________________ संवर तथा निर्जरा ४३९ अमणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओग सति समन्नागए यावि भवइ । भगवती, श. २५, उ. ७, सूत्र २३८ करना । - ( आर्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा (१) अनिष्ट अथवा अप्रिय ( व्यक्ति वस्तु आदि) से संयोग होने पर उसके वियोग के लिए बार-बार चिन्ता करना । (२) इष्ट का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की बार-बार चिन्ता (३) दुःख या कष्ट आनेपर उसके दूर होने की बार-बार चिन्ता करना । (४) अनुभव किये अथवा भोगे हुए काम - भोगों के वियोग न होने की वांछा करना और उसका विचार करते रहना । उत्तम समाधि की प्राप्ति सातवें . ( अप्रमत्तसंयत) गुणस्थान में होती है। अतः यह स्वयं ही सिद्ध हो गया कि आर्तध्यान सातवें गुणस्थान से पहलेपहले अर्थात् छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है। आर्तध्यान के भेद और उनकी संभाव्यता आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः । ३१ । वेदनायाश्च ।३२। विपरीतं मनोज्ञानाम् ।३३। निदानं च । ३४ । तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।३५। (१) अमनोज्ञ (अप्रिय-अनिष्ट वस्तु / व्यक्ति आदि) का संयोग हो जाने पर उसके दूर करने का सतत विचार करते रहना । (२) वेदना, पीड़ा, कष्ट, आदि होनेपर 'यह कैसे दूर हो' ऐसी सतत चिन्ता । (३) प्रिय अथवा इष्ट पदार्थों / व्यक्तियों का वियोग न हो ऐसी सतत चिन्ता । (४) अप्राप्त ( काम - भोगों) की संकल्पपूर्वक चिन्ता (निदान) कि यह मुझे प्राप्त हों । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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