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संवर तथा निर्जरा ४४१ संकल्प आदि) करते ही साधु के अहिंसा, परिग्रह आदि पाँचों या एक-दो महाव्रत दूषित हो जाते हैं ।
फिर सातवें अध्ययन के सूत्र १३ के विवेचन में स्पष्ट कह दिया है कि माया, मिथ्या और निदान-इन तीन शल्यों वाला जीव व्रती हो ही नहीं सकता (निःशल्यो व्रती) । इससे स्पष्ट है कि निदान आर्तध्यान व्रती श्रावक को भी संभव नहीं है ।
आर्तध्यान के चार भेदों का संक्षिप्त सार यह है -
(१) अनिष्टसंयोग -अप्रिय वस्तु-व्यक्ति का संयोग होने पर उसके वियोग की चिन्ता करते रहना और वर्तनाम में अनिष्ट का संयोग न हो तो भी यह सोचते रहना कि कहीं मुझे अनिष्ट का संयोग न हो जाय ।
(२) इष्टवियोग - इष्ट-प्रिय का वियोग होने पर दुखी होना, चिन्ता करना तथा इष्ट वियोग की संभावना की ही चिन्ता करते रहना कि मेरी प्रिय स्त्री, धन आदि का या प्रिय शिष्य आदि का वियोग न हो जाए ।
(३) वेदना -मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा होने पर उसके उपशमन की चिन्ता करते रहना अथवा किसी प्रकार की पीड़ा न हो जाय ऐसी चिन्ता करना ।
(४) निदान - आगामी जन्म में अथवा भविष्य में काम-भोगों की तीव्र लालसा मन में रखकर उनकी प्राप्ति की संकल्पपूर्ण चिन्ता ।
अतः आर्तध्यान वर्तमान सम्बन्धी तो होता ही; किन्तु भविष्य की आशंका-कुशंकाओं के अनवरत विचार के रूप में भी होता है।
शरीर और सांसारिक भोगों आदि के विषय में होने से यह संसार बढ़ाने वाला है, अतः इसे दुर्ध्यान कहा गया है । आगम वचन -
रोद्दज्झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहाहिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेयाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी ।
- भगवती, श. २५, उ. ७, सूत्र २४० झाणाणं च दुयं तहा जे भिक्खू वजई निचं । -उत्तरा. ३१/६
(रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है- (१) हिंसानुबंधी (२) मृषानुबंधी (३) स्तेयानुबंधी (४) संरक्षणानुबन्धी ।
(इन दोनों ध्यानों (आर्त और रौद्रध्यान) को साधु सदा छोड़ता है, वर्जित करता है ।)
((इससे यह प्रगट है कि यह ध्यान (रौद्रध्यान) साधु को नहीं
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