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आभ्यन्तरवचन - उत्सर्ग जाता है जो त्या बाह्य और ।
४३४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र २६ व्युत्सर्ग तप के प्रकार -
बाह्याभ्यन्तरोपध्यो : २६ ।
व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का है (१) बाह्य उपधि का त्याग और (२) आभ्यन्तर उपधि का त्याग ।
विवेचन - उत्सर्ग का अभिप्राय त्यागना अथवा छोड़ना है | त्याग सदा ऐसी वस्तु का किया जाता है जो त्याज्य हो, छोड़ने योग्य हो । ऐसी वस्तुएँ दो प्रकार की हो सकती हैं - (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर
___ बाह्य वस्तुएँ बाह्य परिग्रह होती हैं, ये शरीर और संसार संबन्धी अनेक प्रकार की हैं । और आभ्यन्तर त्याज्य वस्तुएँ है -मन में उद्वेग उत्पन्न करने वाले विषय, कषाय, अहंकार, ममकार, आशा, इच्छा आदि ।
उक्त सूत्र में इन दोनों ही प्रकार के त्याग को 'व्युत्सर्ग तप' कहा है।
बाह्य और आभ्यन्तर की अपेक्षा ही व्युत्सर्ग तप के दो भाग आग मों में बताये गये हैं - (१) द्रव्यव्यत्सुर्ग और (२) भाव्युत्सर्ग
द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का है - . (१) शरीरव्युत्सर्ग - शरीर के प्रति ममत्व का त्याग ।
(२) गणव्युत्सर्ग - एक सम्प्रदाय के साधुओं का समूह गण कहलाता है । उसका त्याग विशिष्ट कारणवश ही किया जाता है और वह कारण है विशिष्ट आत्म-साधना, विशेष गुणों का उपार्जन, विशिष्ट ज्ञानाभ्यास आदि ।
गण का व्युत्सर्ग सदा ही गुरु की अनुमति से किया जाता है।
गुरु भी उसी शिष्य को गण-त्याग की अनुमति देते हैं, जिसमें यह आठ गुण हों (१) ज्ञान (२) क्षमा (३) जितेन्द्रियता (४) अवसरज्ञता (५) धीरता (६) वीरता (७) दृढ़ शरीरवान और (८) शुद्ध श्रद्धा-अर्थात् इन आठ गुणों का धारक ही गण-व्यत्सर्ग तप का आचरण करता है ।
(३) उपधिव्युत्सर्ग - उपधि संयम साधना में सहायक उपकरणों को कहा जात है । इस तप में साधक वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का यथाशक्ति त्याग करता है, उनकी मात्रा अनिवार्यता की कोटि तक न्यूनतम करता है।
(४) भक्तपानव्युत्सर्ग - भक्त-पान का अभिप्राय है - भोजन आदि। साधक भक्त-पान के प्रति असक्ति का त्याग करता है।
भक्त-पान का त्याग अनशन नाम के प्रथम बाह्य तप में भी
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