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________________ संवर तथा निर्जरा ४३५ होता है । किन्तु उसमें और भक्त-पानव्युत्सर्ग तप में अन्तर 'इच्छा' का 'अनासक्ति' का है । भक्त-पान व्युत्सर्ग तप में साधक भोजन आदि के प्रति अनासक्ति धारण करता है । यदि शरीर को धारण करने अथवा चलाने के लिए भोजन करना ही पड़े तो उसी तरह (धन्य अनगार के समान) करता है, जैसे कि साँप बिल में प्रवेश करता है, अर्थात् साधक अनासक्त भाव से भोजन को उदरस्थ कर लेता है। भाव व्युत्सर्गतप - तीन प्रकार का है (१) कषाय-व्युत्सर्ग - क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का त्याग । (२) संसार-व्युत्सर्ग - चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण कराने वाले आस्रवों का त्याग करना तथा कामना-वासना का त्याग करके भाव-संसार का उत्सर्ग करना, यह संसार-व्युत्सर्ग तप है। (३) कर्म-व्युत्सर्ग - कर्म (ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म) बंध के हेतुओं का त्याग कर्म-व्युत्सर्ग तप है ।। कहीं-कहीं आगमों में व्युत्सर्ग तप के लिए कायोत्सर्ग शब्द भी प्रयुक्त हुआ हैं; किन्तु भाव दोनों का समान ही है। क्योंकि द्रव्य-कायोत्सर्ग में भी शरीर आदि के प्रति ममत्व का त्याग होता है, अनासक्तवृत्ति धारण की जाती है और भाव-कायोत्सर्ग में कषाय, संसार (भाव-संसार) कर्म (बंध के हेतु) का त्याग साधक करता है । किन्तु फिर भी कायोता शब्द अधिक व्यापक है, यह इरियावहिया आदि दोषों की शुद्धि के लिए भी किया जाता है। आगम वचन के वतियं कालं अवठियपारिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अन्तोमुहुत्तं । - भगवती श. २५, उ. ६, सू. १५० (द्वार २०) (अवस्थित परिणाम (ध्यान के परिणाम) कितने समय तक रहते हैं? गौतम ! कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ।) अन्तोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ।। ___ - स्थानांगवृत्ति, स्थान ४, उ. १, सूत्र २४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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