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________________ ३८६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १२ ३. अपर्याप्तनामकर्म के उदय से जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों को भी पूर्ण नहीं कर पाता । ४. साधारण शरीरनामकर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर प्राप्त होता है । आधुनिक विज्ञान अमीबा आदि जीवों को एक-कोशीय कहकर यह स्थापित करता है कि वे स्वयं अपने कोशों का विभाजन करके दूसरा नया जीव पैदा कर देते हैं और इस प्रकार अपनी (यानी जीवों की) संख्या बढ़ाते चले जाते हैं । किन्तु जैनदर्शन की (सैद्धान्तिक, साथ ही व्यावहारिक) मान्यता के अनुसार नया जीव उत्पन्न किया ही नहीं जा सकता । रज-वीर्य के मिश्रण से जीव की उत्पत्तियोग्य परिस्थिति का निर्माण होता है, न कि जो पुत्र रुप में जीव उत्पन्न हुआ, उसके रूप में किसी नये जीव का निर्माण हुआ । वास्तविकता यह है कि अमीबा आदि जीव साधारण शरीर वाले हैं। उनका शरीर तो एक ही (वही) रहता है और उसमें अनन्त जीव आकर उत्पन्न होते और मरते रहते हैं | Dead cell कहकर विज्ञान ने भी इन जीवों का अथवा उनमें से अनेक का मरण स्वीकार किया है कि जो कोश मर जाते हैं उनमें प्रजनन क्षमता (Generating power) नहीं रहती । ५. अस्थिरनामकर्म के उदय से नाक-भौंह-कान आदि अस्थिर अथवा चपल रहते हैं । इसका दूसरा लक्षण यह भी है कि किसी कारण से धातु तथा उपधातुएँ स्थिर नहीं रहें, चलायमान हो जाएँ, रोग आदि हो जाएँ, वह अस्थिरनामकर्म ६. अशुभनामकर्म के उदय से नाभि से नीचे के अवयव अशोभनीय होते है । दूसरे मत से नाभि से ऊपर के अवयव मस्तक आदि भी अशुभ होते ७. दुर्भगनामकर्म के उदय से जीव परोपकारी होते हए भी लोगों को अप्रिय होता है । ८. दुःस्वरनामकर्म के उदय से जीव का स्वर सुनने वालों को अप्रिय और कर्कश लगता है यानी स्वर ही कर्णकटु होता है । ९. अनादेयनामकर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त और हितकारी तथा सत्य होते हुए भी लोग उसे मान्य नहीं करते है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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