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________________ बन्ध तत्त्व ३८५ अभिव्यक्ति का विस्तृत रूप ग्रहण करना चाहिए, इन्द्रियों (आँख, कान आदि) से ही जाना जा सके, अभिव्यक्ति का इतना ही अर्थ लेना उचित नहीं होगा; अपितु सूक्ष्मातिसूक्ष्म संवेदनशील यंत्रों के सहयोग से जो इन्द्रियों द्वारा जाना जा सके, ‘अभिव्यक्ति ́ का इतना विस्तृत अर्थ लेना चाहिए । क्योंकिं पेड़ पौधे आदि साँस लेते हैं, यह सिर्फ इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता; जबकि आधुनिक वैज्ञानिक संवेदनशील यंत्रों द्वारा जान सकते हैं । (४) प्रत्येकशरीरानामकर्म इस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव को अपना स्वतंत्र शरीर प्राप्त होता है । इस कर्म के उदय से जीव के हड्डी दाँत (५) स्थिरनामकर्म आदि स्थिर रहते हैं । इस कर्म का दूसरा लक्षण यह भी दिया है सात धातुएँ (रस, रुधिर, मांस, मेद, हाड़, मज्जा और वीर्य) तथा सात उपधातुएँ (वात, पित्त, कफ, शिरा, स्नायु, चाम और जठराग्नि) स्थिर रहें, दुष्कर तपश्चरण से भी रोग नहीं होवे, वह स्थिर नाम कर्म है । (६) शुभनामकर्म के उदय से नाभि के उपर के अवयव शुभ होते - (७) सुभगनामकर्म के उदय से जीव सबको प्रिय लगता है, चाहे वह उनका कोई उपकार न करे, यहाँ तक कि कोई सम्बन्ध भी हो । (८) सुस्वरनामकर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिवर्धक होता है । - (९) आदेयनामकर्म के उदय से जीव का वचन बहुमान्य या सर्वमान्य होता हैं । (१०) यशःकीर्तिनामकर्म के उदय से जीव को यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है T स्थावरदशंक की भी दस प्रकृतियाँ हैं । यह त्रसदशक प्रकृतियों से विपरीत प्रभावशाली होती हैं I १. स्थावरनामकर्म के उदय से जीव को ऐसा शरीर प्राप्त होता है जिससे वह अपने हिताहित में गमन नहीं कर पाता । एक शरीर एकन्द्रिय जीवों को ही प्राप्त होता है । Jain Education International २. सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जीव को ऐसा सूक्ष्म शरीर मिलता है जो आंखों से नहीं दिखाई देता । यह इतना सूक्ष्म होता है कि न स्वयं किसी से रुकता है और न किसी को रोकता ही है । यह शरीर भी एकेन्द्रिय जीवों को ही मिलता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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