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________________ ३५२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १ और छठा मन-इन छहों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होने से न रोकना। (ग) प्रमाद - प्रमाद का सामान्य अर्थ आलस्य है । यह मनुष्य के अपने शरीर में रहा हुआ, उसका प्रच्छन्न किन्तु घोर शत्रु है । यह बड़ा मीठा जहर है । सामान्यतः मनुष्य को यह अच्छा लगता है, किन्तु इसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है । इसी के कारण मनुष्य कुशल-कार्यों-धर्म-कार्यों को नहीं कर पाता, कर्तव्य-अकर्तव्य में असावधानी बरतता है, . शुभ परिणति में उत्साह नहीं कर पाता, मोक्षमार्ग की ओर गति-प्रगति नहीं कर पाता है । प्रमाद के प्रमुक भेद ५ और उत्तर भेद १५ हैं । .. (१) मद - रूप, कुल, जाति, ज्ञान, तप आदि का अभिमान. । (२-६) विषय - पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्तिः । (७-१०) कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ-चारों कषायों में प्रवृत्ति। (११-१४) विकथा - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, देशकथा- इन चारों निरर्थक और पापकारी कथाओं को करना, कहना, सुनना । (१५) निद्रा - आलस्य, नींद, सुस्ती में पड़े रहना । (घ) कषाय - आत्मा के कलुषित परिणाम कषाय है । कषाय ही जन्म और मरण कामूल कारण हैं । कर्मबन्ध में इनकी प्रमुख भूमिका है । बँधी कर्मवर्गणाओं में इन्हीं के कारण स्थिति (समय मर्यादा) और अनुभाग (रस देने की शक्ति) पड़ता है । संसार में -चारों गतियों में भ्रमण का यही प्रमुख कारण हैं और इनकी उपस्थिति में जीव की मुक्ति नहीं हो पाती । कषायों के प्रमुख भेद ४ और अवान्तर भेद २५ हैं । इन सबका वर्णन इसी अध्याय के सूत्र १० में किया जा रहा है । (ङ) योग - योग का अर्थ है प्रवृत्ति । यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती है। शुभयोग (प्रवृत्ति) से पुण्य का और अशुभयोग (प्रवृत्ति) से पाप का आस्रव होता है । इसके मुख्य रूप से ३ भेद है और उत्तर भेद १५ हैं। (१) मनोयोग- यह मन की (मानसिक) प्रवृत्ति है । इसके ४ भेद हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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