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बन्ध तत्त्व ३५१ (३) सांशयिक - देव-गुरु-धर्म के स्वरूप के विषय में संशयग्रस्त रहना ।
(४) अनाभोगिक-मिथ्यात्व की प्रबल दशा । यह एकेन्द्रिय आदि जीवों में होता है ।
(५) आभिनिवेशिक - असत्य समझकर भी अपने पक्ष से चिपके रहना । इसी का दूसरा नाम मिथ्याग्रह या दुराग्रह हैं ।
इसी प्रकार मिथ्यात्व के अन्य भेद भी हैं -
(६) लौकिक (७) लोकोत्तर (८) कुप्रवाचनिक (९) अविनय (१०) अक्रिया (११) आशातना (१२) आउया (आत्मा को पुण्य-पाप नहीं लगता) यह मान्यता (१३) जिन वाणी की न्यून प्ररूपणा (१४) जिनवाणी की अधिक प्ररूपणा (१५) जिनवाणी से विपरीत प्ररूपणा (१६) धर्म को अधर्म (१७) अधर्म को धर्म (१८) साधु को असाधु (१९) असाधु को साधु (२०) जीव को अजीव (२१) अजीव को जीव (२२) मोक्षमार्ग को संसार मार्ग (२३) संसार मार्ग को मोक्षमार्ग (२४) मुक्त को अमुक्त और (२५) अमुक्त को मुक्त कहना ।
__ शास्त्रों में मिथ्या मतवादियों के ३६३ भेद गिनाये गये हैं-क्रियावादियों (जो केवल क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं) के १८०, अक्रियावादियों (सिर्फ ज्ञान से ही मोक्ष माननेवाले) के ८४, अज्ञानवादियों (अज्ञान से ही मुक्ति मिलेगी, ऐसा जिनका मत है) के ६७ और वैनयिकों ( विनय को ही मुक्ति का साधन मानने वाले) के ३२ भेद है । ये सभी एकान्तवादी होने से मिथ्यात्व में गिने गये है ।
इसी तरह विस्तृत अपेक्षा से विचार किया जाए तो मिथ्यात्व के अगणित भेद हो सकते हैं; किन्तु प्रमुख भेद २५ हैं ।।
(ख) अविरति - अविरति का अर्थ है हृदय में आशा- तृष्णा का अस्तित्व रहना; पाप कार्यों, आस्रवद्वारों, इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त न होना ।
स्वरूप की अपेक्षा से अविरति के १२ भेद होते हैं -
(१-६) पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति, यह ५ स्थावर और ६ त्रस काय-चलते फिरते जीव- इन छह काय के जीवों की हिसा का त्याग न करना ।
(७-१२) स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र-यह पाँच इन्द्रियाँ
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