________________
३५० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १ प्राय हैं - बन्ध के कारण (instrument or causes) । अर्थात् जिन कारणों से कर्म वर्गणाओं (पुद्गल) के साथ आत्म-प्रदेशों का बंध होता है वे बंधः हेतु अथवा बन्ध के निमित्त या कारण कहलाते हैं ।।
सत्र में ऐसे ५ हेत बताये हैं । यह प्रमुख भेद हैं । इनके अवान्तर भेद भी अनेक हैं । बंध हेतुओं के विषय में तीन परम्पराएँ उपलब्ध होती है।
(१) कषाय और योग - यह बंध के दो हेतु है । (२) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - यह बंध के चार हेतु हैं।
(३) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- यह बंध के पाँच हेतु है ।
. यद्यपि इन तीनों परम्पराओं में संख्याभेद तो हैं, किन्तु तात्त्विक भेद नहीं है । क्योंकि जहाँ कषाय और योग-यह दो बंधहेतु माने गये हैं, वहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद का 'कषाय' में अन्तर्भाव कर दिया गया है और ४ बंध हेतु वाली परम्परा में कषाय में प्रमाद का अन्तर्भाव कर दिया गया है।
यद्यपि यह तीनों परम्पराएँ प्रामाणिक हैं, वस्तु तथ्य की सही ज्ञान कराती हैं; किन्तु प्रथम परम्परा अति संक्षिप्त है और दूसरी संक्षिप्त ।
तीसरा परम्परा में पाँच बंधहेतु बताये गये हैं । इनका संक्षिप्त परिचय यह है -
(क) मिथ्यात्व - मिथ्यात्व का अर्थ है- वस्तु का यथार्थ श्रद्धान न होना । इसके साथ ही दूसरा अर्थ यह भी होता है कि वस्तु के विषय में अयथार्थ श्रद्धान होना ।
ये दोनों ही बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक नेगेटिव है और दूसरी पोजीटिव । जिस व्यक्ति को यथार्थ श्रद्धान न होगा, उसे अयथार्थ श्रद्धान तो होगा ही, इसमें दो मत नहीं हो सकते ।
शास्त्रों में मिथ्यात्व के २५ भेद बताये गये हैं, जिनमें मिथ्यात्व का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है ।
(१) अभिगृहीत - पर के उपदेश ग्रहण किया हुआ ।
(२) अनभिगृहीत - नैसर्गिक, यह मिथ्यात्व जीव के साथ अनादि काल से लगा हुआ है । इसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती । जीव मोह-विमूढ़ बना रहता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org