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________________ ३२६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १८ (१) अतिक्रम व्रत के अतिक्रमण का मन में भाव आना । (२) व्यतिक्रम व्रत को उल्लंघन करने के लिए प्रवृत्ति करना । आंशिक रूप से व्रत का उल्लंघन करना । (३) अतिचार (४) अनाचार व्रत का पूर्ण उल्लंघन कर लेना, व्रत का भंग हो जाना । - - - - इन्हें एक उदाहरण से समझिये - ( एक व्यक्ति ने नियम लिया कि आज प्रातःकाल से लेकर कल सूर्योदय तक चाय नहीं पिऊंगा )। उसे नित्य दो-च -चार चाय पीने की आदत थी । कुछ ही घंटे बाद उसके सिर में भारीपन सा आया, शरीर में शिथिलता आई । वह व्रत को भूल गया कि आज चाय पीने का नियम है । अब उसकी इच्छा चाय पीने की हुई, यह अतिक्रम है । उठकर रसोई घर में पहुँच गया । गैस जलाकर दूध, चीनी, चाय, पानी, रखकर चाय बनाने लगा, यह व्यतिक्रम है । चाय बनाकर प्याले में डाल ली, प्याला हाथ में पकड़कर मुँह की ओर ले जाने लगा, होठों तक प्याला पहुँच गया यह अतिचार है। जैसे ही चाय का घूंट मुंह में गया, अमाचार हो गया; व्रत भंग हो गया, चाय न पीने का नियम टूट गया । अतिचार वह दोष है, जिसके कारण व्रत भंग तो नहीं होता; किन्तु उसमें मलिनता का प्रवेश हो जाता है । Jain Education International जबकि साधक को अपने ग्रहण किये हुए सभी यम-नियमों, सम्यक्त्व आदि में बिल्कुल भी दोष नहीं लगाना चाहिए । साधक सतत सावधान रहे, इसीलिए 'अतिचार' बताये गये हैं । साथ ही आगमोक्त उद्धरण में यह कह दिया गया है 'जाणियव्वा न समायरियव्वा' अर्थात् यह अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण योग्य नहीं है। आगमोक्त उद्धरण में 'पेयाला' शब्द भी विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है । इसका शब्दार्थ है 'प्रधान - प्रधान रूप से - मुख्य रूप से इसका वाच्यार्थ यह है कि साधक इतने ही अतिचार न समझे, यह तो मुख्य अतिचार गिना दिये गये हैं, इनके अतिरिक्त परिस्थितियों के अनुसार साधक अपनी प्रज्ञा से दोषों का निर्णय कर ले और अपनी साधना को निर्दोष बनाये, व्रतों में किंचित् भी - कैसा भी दोष न लगने दे । सम्यग्दर्शन के अतिचारों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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