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आचार - ( विरति - संवर)
वीतराग भगवान के वचनों में सन्देह होना ।
(१) शंका (२) कांक्षा
इस लोक अथवा परलोक के सुखों की इच्छा । (३) विचिकित्सा १. धर्मकरणी के फल में सन्देह, और २. रत्नत्रय के आराधक साधुजनों के तपःकृश मलिन देह को देखकर जुगुप्सा (घृणा) करना ।
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भाष्यकार उमास्वाति ने अपने स्वोपज्ञभाष्य में इसका अर्थ दिया है - जिनेन्द्र भगवान ने जो कहा है वह भी यथार्थ है और अन्य दर्शनकारों ने कहा है वह भी सत्य प्रतीत होता है इस प्रकार मतिविलुप्ति (विभ्रम) हो जाना विचिकित्सा है ।
अन्यदृष्टिसंस्तव
(४-५) अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्य ( मिथ्या) दृष्टियों की प्रशंसा करना तथा मिथ्यादृष्टियों से अधिक परिचय रखना ।
इस सम्बन्ध में जैन दर्शन के विद्वान आचार्यो का कथन इस प्रकार
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. किसी के सद्गुण की स्तुति - प्रशंसा करना ' प्रमोद भाव' है, गुणज्ञता है । फिर मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा को व्रत का दूषण क्यों माना गया है ? क्या मिथ्यादृष्टि में कोई गुण नहीं होता या उसके किसी गुण की प्रशंसा नही करनी चाहिए ?
इसका समाधान है - मिथ्यादृष्टि - प्रशंसा - संस्तुति का अर्थ व भावना यह है कि यहां 'मिथ्यादृष्टि' एक व्यक्ति नहीं, एक धारणा है, मिथ्या मान्यता है, मिथ्या मान्यता जो असत्य है, भ्रान्त है । और उस मिथ्या धारणा के कारण यदि किसी को कोई विशेष उपलब्धि या प्रकर्ष होता भी है तो वह भी 'असत्य का उत्कर्ष है' अतः मिथ्यात्वी की प्रशंसा को असत्य की अथवा असत्यवादियों की प्रशंसा माना गया है । यह मानकर सम्यग् दृष्टि 'मिथ्यात्व' की प्रशंसा या मिथ्यात्वियों के वैचारिक सम्पर्क से सदा दूर रहे |
मिथ्यात्वी में भी सत्य, दया, दान, करुणा आदि अनेक गुण हो सकते हैं, उन सद्गुणों की प्रशंसा करना सम्यक्त्वी के लिए निषिद्ध नहीं है । स्वोपज्ञभाष्य के अनुसार अन्यदृष्टियों के गुणों के केवल मन से उत्कीर्तन को - गुणस्मरण को अन्यदृष्टिप्रशंसा अतिचार कहा है और जो गुण उनमें है अथवा नहीं भी हैं उनको वचन से उत्कीर्तन करना, प्रकर्षता का उद्भावन करना अन्यदृष्टिसंस्तव नाम का अतिचार है ।
सम्यक्त्व, चूँकि महाव्रत और अणुव्रत सभी के लिए आधार है,
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