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________________ - आचार - (विरति - संवर) ३२५ भी कारण से यह निश्चय हो जाय कि अब देह त्याग का अन्तिम समय संनिकट आ पहुँचा है तब साधक हो हँसी के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए । खुशी मृत्यु का सामना करने मृत्यु अनिवार्य घटना है, होनी है, फिर उससे डरना या टालने का प्रयास करने हेतु दीन भाव लाना व्यर्थ है । ऐसी स्थिति में स्वयं को स्थिर व शांत करना चाहिए । संलेखना के लिए तैयार हो जाना चाहिए । संलेखना का अर्थ है आहार, मोह आदि को त्याग कर काया और कषायों को कृश करते हुए समताभावपूर्वक मरण का वरण करना । इसे समाधिमरण अथवा उत्तममरण भी कहा जाता है। समभाव से देहत्याग के परिणामस्वरूप साधक को सुगति प्राप्त होती है । - आगम वचन सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा - संका कंखा वितिगिंच्छा परपासंडपसंसा परपासंडसंथवो । - उपासक दशांग, अध्ययन १ (सम्यग्दर्शन के पांच प्रधान अतिचार हैं, (जिनको जानना चाहिए किन्तु आचरण नहीं करना चाहिए) यथा १. शंका, २. कांक्षा३. विचिकित्सा ४. दूसरे के पाखंडों की प्रशंसा करना और ५. पाखंडो का संसर्ग करना । ) सम्यग्दर्शन के अतिचार शंकाकांक्षाविचिकित्साऽजन्यदृष्टि प्रशंसासंस्तवा : सम्यग्दृष्टे रतिचाराः । १८। १. शंका २. कांक्षा. ३. विचिकित्सा, ४ अन्यदृष्टि की प्रशंसा और ५. अन्यदृष्टि का संस्तव - सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार कहे गये हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में आचार्य प्रवर अणुव्रती साधक के व्रतों के अतिचारों का वर्णन प्रारम्भ कर रहे हैं । सर्वप्रथम उन्होंनें व्रतों के आधारभूत सम्यक्त्व के अतिचारों का वर्णन इस सूत्र में किया है । जब तक साधक अपने गृहीत व्रतों आदि की साधना में परिपक्व नहीं हो जाता तब तक स्खलना आदि लगने की संभावना बनी रहती है । व्रत के अतिक्रमण के रूप मे चार प्रकार के दोष अथवा कोटियाँ बताई गई है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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