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________________ ३१८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र १६ आदि पाँचों पापों (बन्धहेतुओं) का त्याग कर देता है किन्तु उसका अनुमोदन खुला रहता है । इसी कारण उसके व्रत अणुव्रत कहलाते है ।। फिर ऐसा भी संभव है कि अपनी परिस्थिति के अनुसार वह ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में 'कारित' करण भी खुला रखे । अथवा एक योग एक करण से ही धारण करे । इसी अपेक्षा से तो उसके व्रत आगार (छूट या Exception) सहित होते है और वह आगारी साधक कहलाता है, अगारी कहा जाता है । आगार यानी घर में रहकर साधना करने के कारण भी उसे अगारी अथवा आगारी कहा गया है । अहिंसा आदि पाँचों व्रत, चाहे अगारी साधक के हों अथवा अनगारी साधक के, दोनों के ही यह मूल गुण अथवा मूलव्रत कहलाते हैं । आगम वचन - आगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा- . पंच अणुव्वयाइं तिण्णि गुणव्वयाइं चत्तारि सिक्खावयाई । तिण्णि गुणव्वयाई, तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं उपभोग परिभोग परिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासे अतिहि संविभागे । - औपपातिक सूत्र, श्री वीर देशना, सूत्र ५७ (आगार धर्म तीन प्रकार का है - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत । तीन गुणव्रत यह हैं- (१) अनर्थदण्डविरमण (२) दिग्वत और (३) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत । चार शिक्षाव्रत है - (१) सामायिक (२) देशावकाशिक व्रत (३) प्रोषधोपवास व्रत और (४) अतिथि संविभाग व्रत । श्रावक के गुणव्रत और शिक्षाव्रत । दिग्देशानर्थदण्ड विरतिसामायिक पौषधोपवासोपभोगपरिभोग(परिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ।१६ । और (वह अगारी - गृहस्थ श्रावक) १. दिग्वत २. देशव्रत ३. अनर्थदण्ड विरमण व्रत. ४. सामायिक व्रत ५. पौषधोपवास व्रत ६. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत और ७. अतिथि संविभाग व्रत - इन सात व्रतों से भी सम्पन्न होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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