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________________ आचार - (विरति - संवर) ३१७ इन तीनों के ही मूल गुण तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच महाव्रत अथवा सर्वव्रत ही हैं; किन्तु आचार्य के छत्तीस, उपाध्याय के पच्चीस और साधु के सत्ताईस गुण शास्त्रों में बताये गये हैं । - अनगार और अगार की साधना में मूल भेद यह है कि साधु तो अहिंसा आदि पाँचों मूल गुणों का समग्ररूप से पालन करता हैं; किन्तु अगार (गृहस्थ ) साधक इन मूल गुणों का पालन अल्पतः अपनी शक्ति के अनुसार ही कर पाता है । समग्ररूप का अभिप्राय है मन, वचन और काय तीनों योगों और कृत-कारित - अनुमत- तीनों करणों से हिंसा आदि पांचों पापों का त्याग कर देना । उदाहरणतः साधु न स्वयं हिसा करता है, न किसी अन्य से करवाता है और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन करता है । मन से भी नहीं करता, हिंसाकारी वचन भी नहीं बोलता है और काया से भी ऐसी कोई चेष्टा नहीं करता जिससे हिंसा का अनुमोदन या समर्थन होता हो । - इसी प्रकार वह सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का भी पालन करता है। साधु १४ प्रकार के अन्तरंग और १० प्रकार के बाह्य परिग्रह' का भी सर्वथा त्यागी होता है । १. किन्तु गृहस्थ साधक इतनी उच्च भूमिका पर पहुँचा हुआ नहीं होता, उसे पारिवारिक-सामाजिक दायित्व भी पूर करने होते हैं । इसलिए वह इन मूल गुणों अथवा मूलव्रतों की अंशतः साधना कर पाता है । अणुव्रती साधक मन, वचन, काया और कृतकारित से हिंसा (क) चौदह प्रकार के अतरंग परिग्रह (१) मिथ्यात्व (२) राग (३) द्वेष (४) क्रोध (५) मान (६) माया (७) लोभ (८) हास्य (९) रति (१०) अरति (११) शोक (१२) भय (१३) जुगुप्सा (१४) वेद । (ख) दस प्रकार बाह्य परिग्रह (१) क्षेत्र (२) वास्तु (३) हिरण्य (४) सुवर्ण (५) धन (६) धान्य (७) द्विपद (८) चतुष्पद (९) कुप्य (१०) मित्र ज्ञाति संयोग (मित्र, स्वजन, परिवारी जन आदि ) । Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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