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________________ आचार-(विरति-संवर) ३१९ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में गिनाए गये श्रावक के यह सात व्रत, मूलव्रत अणुव्रतों की अपेक्षा, उत्तखत भी कहलाते हैं । आगम में इनमें से प्रथम तीन व्रत गुणव्रत कहे गये हैं और आगे के चार व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है। किन्तु एक भेद और भी है । वह यह कि आगमों में दिग्वत, उपभोगपरिभोग परिमाणव्रत और अनर्थदण्ड विरमणव्रत- इन तीन व्रतों को गुणव्रत कहा गया है तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग व्रत इन चार व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है । देशावकाशिक व्रत को देशंसवर (आंशिक संवर) और पौषधोपवासव्रत को प्रतिपूर्ण संवर भी कहा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र और आगमों में जो व्रतों के क्रम में भेद दृष्टिगोचर होता है यानी सूत्रकार ने आगमोक्त उपभोग-परिभोग तथा देशव्रत का परस्पर स्थान बदल दिया, उसके तीन कारण संभव दिखाई देते हे । १. सूत्र की संक्षिप्त शैली २. गुणव्रत और शिक्षाव्रत - इस प्रकार के विभाजन को गौण करके उत्तरगुण-इस दृष्टि को प्रमुख रखकर वर्णन कर देना । ३. देशव्रत के स्वरूप के विषय में मत-भिन्नता ।। देशव्रत के स्वरूप के विषय में आचार्यों की दो परम्परायें मिलती है। .. एक परम्परा के आचार्यों का हेमचन्द्र (समन्तभद्र आचार्य आदि) मन्तव्य यह है कि देशव्रत में सिर्फ दिग्वत में बांधी हई सीमाओं को ही प्रतिदिन की उपयोगिता की दृष्टि से और भी सीमित किया जाता है; जैसा कि चौदह नियमों के चिन्तन में श्रावक 'दिसि' शब्द पर विचार करके अपनी प्रतिदिन की गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेता है । यहाँ 'देश' शब्द का अर्थ 'दिशा' माना गया है। दूसरी परम्परा आवश्यक वृत्ति आदि की यह है कि देशव्रत में श्रावक दिग्वत की सीमा तो कम करता है ही, साथ ही भोगोपभोग आदि अन्य व्रतों में निर्धारित द्रव्यों आदि को भी कम कर लेता है कि आज इससे योगशास्त्र | ३८४दिग्बते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावका शिकब्रतमुच्यते ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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