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________________ आस्रव तत्त्व विचारणा २६७ आगम वचन - जीवे अधिकरणं. । - भगवती, श. १६, उ. ३ एवं अजीवमवि । - स्थानांग स्थान २, उ. १, सू. ६० ((आस्रव का) अधिकरण (आधार) जीव है और अजीव भी है ।) अधिकरण के दो प्रकार - अधिकरणं जीवाजीवाः ।८। (आस्रव के) आधार जीव और अजीव दोनों ही हैं । विवेचन - प्रयोजन के आश्रय साधन या उपकरण को अधिकरण अथवा आधार कहा जाता है । वह दो प्रकार का है- (१) जीव अधिकरण और (२) अजीव अधिकरण । किन्तु यहां जीव से अभिप्राय जीव के हिंसादि भाव हैं, वे ही आस्त्रव के उपकरण अथवा आश्रय होते हैं अर्थात् जीव के भावों के कारण आस्त्रव होता है, अतः मुख्य रूप में 'जीव' आस्त्रव का अधिकरण (आधार) हैं। अर्थात् जीव के कषायभाव ही आस्त्रव के साधन, उपकरण अथवा अधिकरण हैं । जो बाह्य अधिकरण (आस्त्रव के आधार) होते हैं वे अजीवाधिकरण कहलाते हैं। आगम वचन - संरम्भसमारम्भे आरम्भे य तहेव य । - उत्तरा. २४/२१ तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि न समणुजाणामि । - दशवैकालिक अ. ४ ___जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया कि रिया। . भगवती, श. ७, उ. १, सूत्र १८ (संरम्भ समारंभ आरम्भ-इन तीनों को (तीन योगों) मन, वचन, काय (और तीन करणों) कृत, कारित, अनुमोदन से करना, कराना और अनुमोदन करना-समर्थन करना । (यह कुल सत्ताइस भेद हुए, इनके) क्रोध मान माया लोभ (इन चार से गुणा करने पर १०८ भेद होते हैं यह जीवाधिकरण के भेद हैं ।)) जीवाधिकरण के भेद -- आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषाय - विशेषैस्विस्विस्त्रिश्चतुश्चैकशः ।९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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