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२६६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र ७
आस्रव में विशेषता तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण की विशेषता से होती है ।
विवेचन - यहाँ विशेषता का अभिप्राय न्यूनाधिकता है । अभिप्राय यह है तीव्रभाव आदि ६ कारणों से आस्त्रव अधिक या कम होता है ।
पूर्व सूत्र में बताये गये ३९ आस्त्रव भेदों के विद्यमान रहते हुए भी इस सूत्र में बताये गये ६ कारणों से आस्त्रव (कर्मवर्गणाओं के आगमन) में न्यूनाधिकता ( कमी - वेशी) हो जाती है ।
तीव्रकषायों सहित परिणाम (भाव) तीव्रभाव कहलाते हैं और कषायों की मंदता से प्रभावित जीव के परिणाम मंदभाव ।
इसी प्रकार जानबूझकर देखते - भालते भी हिंसादि पापास्रव ज्ञातभाव है; उदाहरणार्थ, कीड़ी आदि के समूह पर देखकर भी पैर रखकर निकल
जाना ।
और अनजान में बिना देखे, असावधानीवश पैर पड़ जाना अज्ञात भाव है ।
वीर्य का अभिप्राय शक्ति अथवा बल है । इस अपेक्षा से शक्तिशाली (महावीर्य) प्राणी का आसव अधिक होता तथा अशक्त (अल्पवीर्य) का
कम ।
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विशेष शक्तिशाली पुरुष का आस्रव और बंध अधिक होता है तो वीर्यशक्ति की विशेषता से उसकी संवर और निर्जरा भी विपुल परिमाण में होती है । इसीलिए कहा गया है जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा जो कर्म के उपार्जन में शूरवीर हैं वे धर्म-करणी में भी शूरवीर होते हैं । जैसे अर्जुन - माली ने ११४१ व्यक्तियों की नृशंस हत्या द्वारा उपार्जित पाप तथा अन्य सभी संचित कर्मों का छह मास के अल्पसमय में ही संपूर्ण क्षय करके मुक्ति प्राप्त कर ली थी ।
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अधिकरण जीव और अजीव के भेद से अधिकरण कई प्रकार के हैं । इनका विवेचन अगले सूत्रों में किया जा रहा है ।
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वैसे अधिकरण का सामान्य अर्थ आधार अथवा प्रयोजन हैं । उद्देश्य प्राप्ति में सहायक साधनों का भी अधिकरण शब्द में समावेश हो जाता है।
किन्तु अधिकरण के प्रसंगोपात्त तथा विशेष अभिप्राय स्वयं आचार्य अगले सूत्रों में कह रहे हैं ।
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