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२६८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र ८-९
आद्य (आदि का जीवाधिकरण) के संरम्भ, समारम्भ, आरंभ, योग, कृत, कारित, अनुमत और कषाय- यह भेद हैं । इन (भेदों) के अनुक्रम से तीन, तीन, तीन और चार भेद हैं ।
विवेचन - संरम्भ, समारम्भ, आरंभ-यह ३ योग (मन, वचन, काय) ३ करण (कृत, कारित, अनुमोदन) और ४ कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) इनको परस्पर गुणा करने से (३४३४३४४)=१०८ भेद जीवाधिकरण (जीव के आस्रव रूप परिणाम) के होते हैं । ___ यदि और भी विस्तार की अपेक्षा विचार किया जाय तो क्रोध आदि चारों कषाय अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, संज्वलन के भेद से प्रत्येक चार-चार प्रकार की हैं । तब १०८ को ४ से गुणा करने पर जीवाधिकरण ४३२ भेद हो जाते हैं ।
संरंभ आदि का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है ।
हिंसादि करने के प्रयास रूप परिणाम संरंभ हैं । हिंसादि करने की सामग्री एकत्र करना समारम्भ और हिंसादि में प्रवृत्त हो जाना आरम्भ हैं ।
मन, वचन और काय-यह तीन योग हैं ।
कृत का अभिप्राय है स्वयं करना । कारित दूसरे को आज्ञा देकर कराना और अनुमत (अनुमोदन) अन्य किसी व्यक्ति के हिंसादि कार्यों का समर्थन करना, अथवा उसकी प्रशंसा करना है ।
विशेष - (१) नवकरवाली में जो १०८ दाने होते हैं तथा किसी दोष में प्रायश्चित्त रूप नवकार आदि को १०८ बार जप करने का जो विधान शास्त्रों में बताया है, उसका अभिप्राय भी यही ज्ञात होता है कि संरम्भ आदि १०८ भेदों से जो पाप का आस्रव हुआ है, उस पाप की १०८ बार के जप से निर्जरा हो जाये । आगम वचन - निवत्तणाधिकरणिया चेव संजोयणाधिकरणिया चेव ।
स्थानांग २, सूत्र ६० आइए निक्खिवेज्जा ।
- उत्तरा. २५/१४ पवत्तमाणं ।
-उत्तरा. २४/२१-२३ (निर्वतनाधिकरण, संयोगाधिकरण, निक्षेपाधिकरण और प्रवर्तमानाधिकरण (मन-वचन-काय में प्रवर्तमान) यह चार अजीवाधिकरण के भेद होते हैं ।)
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