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________________ २५६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १-२ वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम तथा शरीरनामकर्म की वर्गणाओं के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में कम्पन होना काययोग है । इसी प्रकार वीर्यान्तरायकर्म तथा मत्यक्षरादि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुई वाग्लब्धि के कारण जब जीव वचन बोलने को उद्दत होता है, उस समय का आत्म-प्रदेशों का कम्पन वचनयोग है । ऐसे ही वीर्यान्तरायकर्म तथा अनिन्द्रियावरण कर्म से प्राप्त हुई मनोलब्धि से मनन रूप क्रिया करने को जब जीव उद्यत होता है तब वह मनोयोग कहलाता है । व्यवहार में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति ही मन-वचन-काय योग कही जाती है । छद्गस्थ के यह योग क्षयोपशमजन्य हैं । किन्तु केवली में जो योग का सद्भाव है, वह क्षायिक भाव की अपेक्षा हैं, क्योंकी वहाँ ज्ञानावरणीय, अन्तराय, साथ ही दर्शनावरणीय और मोहनीय का पूर्ण रूप से क्षय हो चुका है। इस कारण केवली भगवान वचन, काय योग की क्रिया करने को उद्यत नहीं होते, यह क्रियाएँ उनके सहज ही होती हैं, (ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से उनका भावमन आत्मा के ज्ञान गुण में विलीन हो जाता है, अतः भावमन न रहने की अपेक्षा मनोयोग संबंधी क्रिया भी नहीं होती ) जबकि छद्मस्थ जीव क्षायोपशमिक भाव के कारण उद्यत होता है । यही केवली और छद्मस्थ के योग में अन्तर है । शैलेशी अवस्था प्राप्त केवली भगवान तो अयोगी हैं ही; उनके किसी भी योग का सद्भाव नहीं है । ) I आगम वचन - पंच आसवदारा पण्णता, तं जहा ( १ ) मिच्छतं ( २ ) अविरइ ( ३ ) पमाया, ( ४ ) कसाया ( ६ ) जोगा । - समवायांग, समवाय ५ ( आस्त्रवद्वार पाँच होते हैं - ( १ ) मिथ्यात्व, ( २ ) अविरति, (३) प्रमाद, ( ४ ) कषाय और ( ५ ) योग । ) आस्त्रव का लक्षण स आस्त्रवः |२| वह (योग ही) आस्त्रव है । विवेचन- ‘आस्त्रव' का शब्दार्थ है, बहते हुए किसी पदार्थ-द्रव आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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