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छठा अध्याय
आस्त्रव तत्त्व विचारणा
(INFLOW OF KARMIC MATTER)
उपोद्घात
प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन - ज्ञान का वर्णन हुआ, दूसरे से चौथे अध्याय तक सात तत्वों में से प्रथम जीव तत्व का विवेचन किया गया और पांचवें अध्याय में अजीव तत्व का पूर्ण विवरण दिया जा चुका है I
अब प्रस्तुत छठे अध्याय में आस्त्रव तत्व का वर्णन किया जा रहा
है ।
आस्त्रव के भेद-प्रभेद, ईयापथिक, सांपरायिक आस्त्रव, आस्त्रवों के कारण-मन-वचन-काया के योग, आस्त्रव के अधिकरण, ज्ञानवरण आदि आठ कर्मों के हेतुभूत आस्त्रवों का वर्णन प्रस्तुत अध्याय में है ।
आगम वचन
तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा
मणजोए, वइजोए, कायजोये । - भगवती, श.१६, उ.१, सूत्र५६४
( योग तीन प्रकार का होता है
(१) मनोयोग, (२) वचनयोग, (३) काययोग 1 )
योग के भेद
1
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कायवाङ् : मनःकर्म योगः |१|
काय वचन और मन की क्रिया ( प्रवृत्ति) योग है ।
विवेचन - शरीर, वचन और मन जब सक्रिय होते हैं, अर्थात् प्रवृत्ति - उन्मुख होते हैं, तब आत्मा के प्रदेशों में जो स्पन्दन - कम्पन होता है, वह योग कहलाता है । वह योग निमित्त की दृष्टि से तीन प्रकार का है- १. मनोयोग, २. वचनयोग और ३. काययोग ।
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योगों का अर्थात् आत्म- प्रदेशों के कम्पन का आन्तरिक कारण है वीर्यान्तरायकर्म और शरीरनामकर्म आदि का क्षयोपशन ।
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