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________________ आस तत्त्व विचारणा २५७ का आना-आगमन होना । जिस प्रकार झरोखे (खिड़की) से वायु और नाली से बहता हआ जल आता है, उसी प्रकार मन, वचन, काय-इन तीनों योगों से (अथवा किसी एक, या दो से भी) कर्मवर्गणाओं का आना, आस्त्रव आस्त्रव को अंग्रेजी में Inflow of Karmic Matter कहा जा सकता है। विशेष - आगम में मिथ्यात्व आदि पाँच आस्त्रव बताये गये हैं-वे विशेष अथवा भेद की अपेक्षा से हैं । यह सत्य है कि छद्रस्थ जीव का आस्त्रव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन पाँच रुपों में होता है, अथवा अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार ४,३,२ और १ के रुप में भी होता है । किन्तु यहाँ जो आस्त्रव का एक ही हेतु स्वीकार किया गया है वह सामान्य कथन है । यह आस्त्रव-यानी योगरुप आस्त्रव छद्रस्थ और केवली (सयोगी केवली) सभी को होता है । . पुण्णं पाावसवो तह. । - उत्तरा० २८/१४ (वह आस्त्रव दो प्रकार का है-१. पुण्यास्त्रव तथा २. पापास्त्रव ।) आस्त्रव के दो भेद शुभः पुण्यस्य ।३। अशुभः पापस्य ।४। शुभयोग पुण्य का आस्त्रव है । अशुभयोग पाप का आस्त्रव है। विवेचन - योग के ये दोनों भेद स्वरुप की अपेक्षा से हैं। इसका अभिप्राय यह है कि शुभ उद्देश्य से की गई प्रवृत्ति-योग से पुण्य का आस्त्रव होता है और अशुभ उद्देश्ययुक्त प्रवृत्ती-योग से पाप का । सामान्यतः शुभयोग अथवा पुण्य आस्त्रव नौ प्रकार से होता है(१) अन्नपुण्य - भूखे को भोजन से तृप्त करना। (२) पानपुण्य - प्यासे प्रणियों की प्यास शांत करना । (३) शयनपुण्य - थके हुए प्राणियों को मकान आदि आश्रय देकर उनकी सहायता करना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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