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२५२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ५ : सूत्र ४०-४४
- वृत्तिकार ने कहा है कि- एक अर्थ से दुसरे अर्थ में प्राप्त होने को परिणाम कहते हैं । सब प्रकार से दूसरा रूप भी नहीं हो जाता और न सब प्रकार से प्रथम रूप नष्ट ही होता है, उसे परिणाम कहते हैं । गुण और परिणाम का स्वरूप तथा भेद और विभाग -
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।४०। तद्भावः परिणामः । ४१। ..
अनादिरादिमांश्च ।४२। ... रूपिष्वादिमान् ।४३। योगोपयोगौ जीवेषु ।४४।
गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं; किन्तु वे (गुण) स्वयं निर्गुण होते हैं, यानी गुणों के आश्रित गुण नहीं रहते ।
___ उसका भाव (परिणमन) परिणाम है अर्थात् स्वरूप में रहते हुए एक अर्थ से दूसरे अर्थ में प्राप्त होना परिणाम है ।।
वह दो प्रकार का है - (१) अनादि और सादि (आदिमान)। ___ रूपी पदार्थों - (पुद्गलों में वह) सादि है ।
जीवों में योग और उपयोग अनादि है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रो में गुणो तथा परिणमन (पर्यायों) का वर्णन किया गया है।
सूत्र ४० में आश्रय शब्द आधार के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है । इसका संकेत परिणामी की ओर हैं । द्रव्य परिणामी है, वह परिणमन करता है । गुण उस परिणामी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, किन्तु गुणों के आश्रित गुण नहीं रहते; इस दृष्टि से गुण स्वयं निर्गुण यानी अन्य गुणविहीन होते हैं ।
___ यदि गुणों के आश्रय में गुण रहते लगें तब तो बड़ी अव्यवस्था हो जायेगी । जीव के ज्ञान गुण में दर्शन, चारित्र, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अन्य गुण भी प्रवेश पा जायेंगे । ऐसी दशा में द्रव्य अपने स्वरूप में ही नहीं रह सकेगा । इसीलिए द्रव्य की यह स्वाभाविक व्यवस्था है कि उसके आश्रित तो अनन्त गुण रहते हैं किन्तु उन गुणों के आश्रित अन्य गुण नहीं रहते । द्रव्य के सभी गुण स्वतंत्र है ।
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