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________________ अजीव तत्त्व वर्णन २५१ व्यवहार काल भी समय, आवलिका, आणपाण, मुहूर्त, दिन, पक्ष मास, संवत्सर आदि रूप में सागर पर्यन्त है तथा उससे भी आगे अनन्तानन्त तक भी कहा गया है । अद्धासमय (काल) के व्यावहारिक रूप से सूत्र २५ में बताये गये क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि का व्यवहार होता है। 'दिन-मास आदि के व्यवहार का आधार सूर्य-चन्द्र की गति है । इसी कारण इसे मनुष्य क्षेत्र तक ही प्रवर्तमान माना गया है । काल द्रव्य है या नहीं, इस विषय में मतभेद हैं । इसी कारण सूत्रकार में 'कालश्चेत्येके' यह सूत्र दिया है कि कोई- . कोई आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । सूत्रकार इस विवाद में नही पड़े कि काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं ? उन्होंने तो केवल उल्लेख मात्र करके इस विषय को छोड़ दिया । काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्य उसे (काल को) अन्य द्रव्यों की परिणमन क्रिया में उदासीन सहायक मानते हैं । जैसे धर्म और अधर्म अस्तिकाय गति और स्थिति में उदासीन सहायक कारण हैं, उसी प्रकार काल भी परिणमन में उदासीन कारण है । दूसरी बात, काल अस्तिकाय नहीं है । काल के सूक्ष्मतम अन्त्य अणु कालाणु हैं, जो रत्न राशिवत् परस्पर स्वतन्त्र हैं । जीव के प्रदेशों तथा धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेशों की भाँति परस्पर सम्बद्ध नहीं है । यह काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वालों की मान्यता है । अनुयोगद्वार सूत्र में काल (अद्धा समय) छठा द्रव्य माना गया है । आगम वचन - दव्वस्सिया गुणा । - उत्तरा. २८/६ (गुण द्रव्य के आश्रय होते हैं ।) दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहाजीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य । - प्रज्ञापना, परिणाम पद १३, सूत्र १८१ परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानाम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥ (इति वृत्तिकार) (परिणाम दो प्रकार का होता है- जीवपरिणाम, अजीवपरिणाम।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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