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________________ अजीव तत्त्व वर्णन २५३ इस द्रव्य के भाव को-स्वतत्त्व को परिणाम कहा जाता है । परिणाम का अभिप्राय यह है कि अपने स्वरूप का त्याग न करते हुए एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना । इसे साधारण शब्दों में पयार्य कहा जा सकता है । जैसे द्रव्य में उत्तर पर्याय का उत्पाद और पूर्वपर्याय का विनाश होता रहता है किन्तु द्रव्य फिर भी अपने स्वरूप में रहता है, उसके स्वरूप का न विनाश होता है और न ही उसमें परिवर्तन होता है, उसका स्थिरत्व ज्यों का त्यों लगातार त्रिकालव्यापी रहता है । यही बात परिणाम के बारे में हैं। वह परिणाम आदिमान और अनादिमान की विवक्षा से दो प्रकार का अनादि का अभिप्राय है -सहज, स्वाभाविक रूप में सदा से होने वाला और सदा होता रहने वाला परिणाम । ऐसा परिणाम धर्म, अधर्म और आकाश अस्तिकाय में होता रहता है । ___ जीव और पुद्गल में अनादि और आदिमान दोनों प्रकार के परिणाम होते हैं । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि रूप परिणाम तो इन दोनों द्रव्यों में अनादि हैं । किन्तु पुद्गल में स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध के उत्तरभेदों की अपेक्षा आदिमान परिणाम है और योग तथा उपयोग की अपेक्षा जीव में भी आदिमान परिणाम हैं । . . आठ प्रकार के स्पर्श, पाँच प्रकार के रस, पाँच प्रकार के वर्ण, दो प्रकार के गन्ध- इनके तरतम भाव के अनुसार असंख्यात भेद होते हैं, वे सब आदिमान परिणाम हैं, क्योंकि वे अनादि से नहीं है । जीव के सात प्रकार के औदारिक, आहारक आदि काय योग, चार प्रकार के वचनयोग और चार प्रकार के मनोयोग भी आदिमान है; क्योंकि यह भी सहज, स्वाभाविक और अनादि नहीं है । इसी प्रकार मतिज्ञान आदि आठ प्रकार का ज्ञानोपयोग और चक्षु दर्शन आदि चार प्रकार का दर्शनोपयोग भी आदिमान है । यह सभी आत्मा अथवा जीव के आदिमान परिणाम है, इसका कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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