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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ३ है - पाँचों इन्द्रियों और मन के सुख को सुख मानना, इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति की अभिलाषा । इन्द्रिय-सुखों को सुख मानने वाले, उसमें आनन्द की अनुभूति करने वाले मानव नीति-अनीति, धर्म, सदाचार आदि सभी से विमुख हो जाते हैं। __ इस आनन्द का दायरा इतना विस्तृत है कि सभी प्रकार के भौतिक सुख इसमें समा जाते हैं । __किन्तु इस सुख की प्राप्ति के लिए सबल शरीर, इन्द्रिय, धन आदि आवश्यक हैं । यही कराण है कि आज के युग में धन के लिए आपाधापी मची हुई है, आज का मानव बेतहाशा इन्द्रिय-सुखों के पीछे भाग रहा है । (८) स्वतन्त्रतानन्द - मानव ही नहीं, पशु भी स्वतन्त्रता चाहता है और इसी में आनन्द मानता है, वह किसी भी प्रकार का बन्धन, मर्यादा नहीं चाहता, बन्धन उसे दुःखदायी कष्टकर लगता है । किन्तु अतिशय स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता बन जाती है और यह परिणाम में दुःखदायी बनती है । . इसी प्रकार कोई धन-सम्पत्ति आदि में सुख मानता है । किन्तु ये सभी सुख वास्तविक सुख नहीं हैं, सुखाभास हैं, दुख के बीज इनमें छिपे हैं, इनका परिणाम दुःख, कष्ट और पीड़ा ही हैं । (९) सन्तोषानन्द - इसे आत्मानन्द भी कह सकते हैं । प्राप्त वस्तु में ही सन्तुष्ट रहकर जो त्याग मार्ग की और बढ़ता रहे, अथवा आत्म-चिन्तन, प्रभुभजन, स्वाध्याय आदि में सुख तथा आनन्द की अनुभूति कर संसार की लालसा/वासना से मुक्त रहे । ऐसे व्यक्ति बहुत विरले होते हैं | इनका लक्ष्य मोक्षाभिमुखी होता है । प्राणीमात्र का जितना भी प्रयास है, जितना भी वह पुरुषार्थ करता है, उसकी दो. ही दिशा है - काम अथवा मोक्ष । यही दो केन्द्रबिन्दु हैं जिन्हें लक्ष्य में लेकर प्राणियों की सभी गतिविधियाँ होती हैं । ___कामना-पूर्ति पतन का मार्ग है और कामना आदि से मुक्ति पाने का प्रयास उन्नति का मार्ग है, विशुद्धि का मार्ग है, सिद्धि का मार्ग है मोक्ष का मार्ग है, शाश्वत सुख का मार्ग है ।। इसी शाश्वत सुख अर्थात् आत्मानन्द की प्राप्ति का उपाय प्रस्तुत शास्त्र में बताया गया है । अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख की प्राप्ति का मार्ग है - धर्म । । धर्म त्रिविध है - सच्चा-विश्वास, सचा ज्ञान और सच्चा आचरण । इसी त्रिविध मोक्षोपाय की ओर सूत्रकार संकेत कर रहे हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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