SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ तत्त्वार्थ सूत्र देते हैं । इसी प्रकार बहुत से मानव बौद्धिक शक्ति प्राप्त करके दूसरों को ठगते हैं, धोखा देते हैं, जासूसी करते हैं, और इस प्रकार वे अपने प्राप्त ज्ञान (इसे मात्र जानकारी कह सकते हैं) में आनन्द मानते हैं। . (२) प्रेमानन्द - मानव चाहता है कि सभी उसे प्रेम करें । जब तक माता-पिता, पति, पत्नी तथा समाज के अन्य व्यक्ति उसे प्रेम करते हैं ,तब तक वह अपने को सुखी मानता है और प्रेम में थोड़ी भी कमी हुई तो दुखी हो जाता है । (३) जीवनानन्द - व्यक्ति जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं का उपभोग करके आनन्द मानता है । वह चाहता है कि सुख-सुविधा के सम्पूर्ण साधन उसे उपलब्ध हों । वह किसी भी कीमत पर जीवनरूपी खिलौने से खेलकर आनन्द उठाना चाहता है । इनमें कमी आते ही हीनभावना से ग्रस्त होकर स्वयं को संसार का सर्वाधिक दुखी व्यक्ति मान कर झूरता है । (४) विनोदानन्द - कुछ व्यक्तियों को खेल-कूद, मनोरंजन, हासपरिहास आदि में आनन्द आता है । विनोद में व्यक्ति ऐसे शब्द कह देता है, ऐसे व्यंग बाण अपनी जबान की कमान से छोड़ देता है कि सुनने वाला आहत हो जाता है, पर इससे उसे क्या, वह तो मन में सुख मानता है । विनोदानन्द का एक रूप गप्पबाजी भी है । मनुष्य कल्पना के घोड़े पर चढ़कर दूसरों को झूठी-सच्ची बातें सुनाकर खुश होता है । जब विनोद के लिए व्यक्ति ताश-चौपड़-द्यूत आदि खेलता है तो हार हो जाने पर स्वयं दुखी होता है, मार-पीट तक की नौबत आ जाती है और यदि यह विनोद व्यसन बन गया तो सम्पूर्ण जीवन ही दुःखी हो जाता है, बरबाद हो जाता है, पतन के गर्त में गिर जाता है । (५) रौद्रानन्द - तब होता है जब व्यक्ति दूसरे प्राणियों को दुःख देकर सुख मानता है । बहुत से व्यक्ति ऐसे क्रूर और आतातायी होते हैं, जिन्हें दूसरों को तड़पता देखकर सुख की अनुभूति होती है । (६) महत्वानन्द - प्रत्येक मानव की भावना होती है कि समाज के, परिवार के, जाति के और यहाँ तक कि संसार में सभी लोग उसे महत्वपूर्ण मानें, उसका आदर करें, उसकी आज्ञा का पालन करें, सभी उसकी प्रशंसा करें, विरोध में कोई एक भी आवाज न निकालें । यदि किसी ने उसकी आज्ञा की अवहेलना कर दी तो वह दुखी हो जाता है, अपने को अभागा समझने लगता है । (७) विषयानन्द - यह सुख सभी भौतिक सुखों से बड़ा है । इस आनन्द में लगभग सभी संसार प्राणी ग्रस्त हैं । विषयानन्द का अभिप्राय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy